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________________ २७८ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ जैसे उच्चकोटि के साधक को भी जीवन सार्थक करने के लिए बार-बार सावधान करते हुए कहा है दुमपत्तए पंडरए जहा, निवडइ राइगणाण अच्चए। एवं मणयाण जीवियं, समयं गोयम ! मा पमायए ॥ इद इत्तरियम्मि आउए, जीवियए बहुपच्च वायए। विहुणाहि रयं पुरेकडं, समयं गोयम ! मा पमायए। "पेड़ का हरा-भरा पत्ता अनेक रात्रियों के बीत जाने पर जैसे पीला पड़कर झड़ जाता है, इसी प्रकार मनुष्य का जीवन है, आयुष्य पूर्ण होते ही यह समाप्त हो जाता है । इसलिए हे गौतम ! समय मात्र भी प्रमाद मत करो। इस थोडे से आयुष्य (जीवितकाल ) में तथा अनेक विघ्न-बाधाओं से संकुल जीवन में पहले किए हुए कर्मों को नष्ट करो और नए कर्म न बँधने दो । हे गौतम ! इसमें क्षण मात्र भी प्रमाद मत करो।" क्षणभंगुर जीवन को सफल करने का कितना सुन्दर उपदेश है। मगर यह उपदेश लगे तब न ! परन्तु आप तो प्रायः कह बैठते हैं- 'जीवन की अशाश्वतता और कर्तव्य का ऐसा उपदेश देने का आपका स्वभाव है, हम तो इस कान से सुनकर उस कान से निकाल देते हैं।' जिसकी भवस्थिति पक जाती है, उसे यह उपदेश तुरन्त लग जाता है। आपने पांचालपति द्विमुखराय का नाम सुना होगा । वे कांपिल्यपुर के राजा थे । सब तरह के वैभव का ठाठ था। एक बार काम्पिल्यपुर में इन्द्र महोत्सव मनाया गया। राजा के आदेश से पूरे नगर को सजाया गया था, जगह-जगह वंदनवार और द्वार लगाये गये । नगर के बीच में एक विशाल प्रांगण था, उसके ठीक मध्य में एक भव्य चबूतरा बनाया गया। उस पर रंगीन रेशमी ध्वजाओं और झंडियों से सुसज्जित एक विराट इन्द्रध्वजा खड़ी की गई। नगर के सभी नर-नारी, युवक-युवतियाँ, बालकबालिकाएँ हर्षोन्मत्त होकर उसके चारों ओर घूम-घूमकर नाचने-गाने-बजाने और उछलने लगे । नगरजन समस्त चिंताओं को भूलकर नये उत्साह से इसमें जुटे हुए थे। राजा द्विमुख ने इस उत्सव पर अपने दामाद मालवपति को भी आमंत्रित किया और खूब आनन्द से उत्सव मनाया। पूर्णिमा के दिन सर्वप्रथम राजा ने इन ध्वज की पूजा की, आरती उतारी, फिर नगर के समस्त प्रमुख श्रेष्ठी, सेनापति, अमात्य आदि ने आरती करके इन्द्रध्वज का पूजन किया। एक दूसरे से गले मिले, ताम्बूल, लवंग आदि से एक-दूसरे का सत्कार किया। पूर्णिमा की दुग्ध-धवल चांदनी में रतभर लोग गाते-बजाते-नाचते रहे और एक दूसरे से गले लगकर मिलते रहे। पूर्णिमा के दिन उत्सव पूर्ण हुआ । तोरण, चंदोवे आदि सब खोल लिये गये। सारी सजावट उतार ली गई । इन्द्रध्वजा पर लगे बहुमूल्य वस्त्र, सोने-चांदी के कलश आदि सब हटा लिये गये । सारी सामग्री समेट लेने के बाद अब उस प्रांगण में सिर्फ एक ध्वजदण्ड रह गया, सारा प्रांगण सूना-सूना हो गया। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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