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जीवन अशाश्वत है : २७७
पलक के ख्याल मांही काहे को मगन होय, सार नहीं जैसे अजा कंठ थण होत है । कहत 'तिलोक' क्षमा खरची धरमधार,
गजऋषि खंदक ज्यों होय निरमोत है।' भावार्थ स्पष्ट है । वास्तव में जो लोग अज्ञान और प्रमाद में पड़कर अपने जीवन को बर्बाद कर देते हैं, वे एक ही जीवन को नहीं, अनन्त-अनन्त जीवनों को बर्बाद करते हैं । उपनिषद के ऋषि ने कहा है
“इतो विनष्टिमहती विनष्टिः" — यहाँ जो अपने जीवन को विनष्ट कर देता है, वह महान विनाश को न्यौता देता है।" जो मनुष्य इस जीवन का विचार नहीं करता, वह अपने लिए कुगतियों कुयोनियों का द्वार खोलकर महाविनाश उत्पन्न करता है । एक कवि ने ऐसे लोगों को चेतावनी देते हुए कहा है
पल-पल बीत रहे जीवन का क्या कुछ तुझे विचार है ? नश्वर काया को कब तक इन सांसों का आधार है ?।। ध्र व ॥ हर काया के लिए अन्त में निश्चित जगह श्मशान है। धरे रहेंगे ये सब ऊँचे-ऊँचे महल मकान हैं । मिट जाएगा, यह सारा कल्पित तेरा अधिकार है ॥ पल....॥ तन को केवल माँज रहा है, मन का मैल न धो रहा । अमृतफल की चाह लगी, पर बीज जहर के बो रहा। मानवता को छू न सका, अब तक तेरा व्यवहार है ॥ पल....॥ धन का जादू ऐसा है, जो सिर पर चढ़कर बोलता। तू स्वीकार न कर चाहे, वह भेद स्वयं ही खोलता।
उसके कारण मरे जा रहे, तेरे शुभ संस्कार हैं । पल....॥
कवि ने कितनी हृदयस्पर्शी बात कह दी है ? साथ ही उसने मानव-जीवन के वामियों को कर्तव्य की चेतावनी भी दे दी है। तात्पर्य यह है कि जब यह निश्चित है के जीवन नाशवान है, तब छोटे-से-स्वल्पसमय के जीवन को सार्थक करने के लिए मनुष्य को प्रमाद या गफलत न करके अपने प्रत्येक अंग को धर्माचरण में लगाना वाहिए । अपने तन, मन, वचन, साधन, इन्द्रियाँ, बुद्धि, धन, भवन आदि सबको, जो कि ताशवान हैं, धर्म-कार्यों में अधिकाधिक लगाना चाहिए। अपनी सुख-सुविधा के लिए, अपने जीवन के सुखोपभोग में कम से कम, यथोचित और धर्ममर्यादा में रहकर समय गाना चाहिए । पिछले जन्मों में जब तक अबोध अवस्था में रहा, तब तक तो अपने । तन-मन आदि के लिए सब कुछ किया, परन्तु अब तो बोध प्राप्त होने पर भी फिर नके मोह में पड़े रहना कितनी नादानी है। भगवान् महावीर ने तो गौतम गणधर
तिलोक काव्य संग्रह, द्वितीय बावनी, काव्य २१
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