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________________ २७६ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ संत ने कहा- “सेठ ! घबराओ मत । 'जबसे जागे, तब से सबेरा' इस कहावत के अनुसार अब धर्म की खूब डटकर आराधना करो।" सुखलाल सेठ ने कहा-"अब मैं दीक्षा नहीं ले सकता, परन्तु गृहस्थ-जीवन में रहकर यथाशक्ति धर्माराधना करूंगा ।" । सुखलाल सेठ ने मुनिश्री से सहर्ष श्रावक के बारह व्रत अंगीकार किये । घर आकर सेठ ने संकल्प किया कि 'अब मुझे नया धन्धा बिलकुल नहीं करना है । जो सम्पत्ति है उसमें से ५० प्रतिशत मुझे दान में उपयोग करना है।' सेठ का हृदय-परिवर्तन और जीवन-परिवर्तन देखकर सेठानी अत्यन्त प्रसन्न हुई। पति के चरणों में पड़कर उसने कहा- "नाथ ! आज मेरा जीवन आनन्दित है, मेरी वर्षों की भावना आज सफल हुई है।" इस प्रकार सेठ-सेठानी दोनों ने मनुष्य-जीवन का स्वरूप समझकर धर्माराधना करके अपना जीवन सफल किया। बन्धुओ ! जिस प्रकार सुखलाल सेठ के मन में जीवन के शाश्वत होने का तथा मोहवश सम्पत्ति इकट्ठी करके उससे जीवन को चिरस्थायी बनाने का भ्रम था, ऐसा ही भ्रम आज के कई भौतिकवादी या पुद्गलानन्दी लोगों को है । वे भी अहंकारवश जीवन को चिरकाल स्थायी और निश्चित समझकर उसे बर्बाद कर रहे हैं। परन्तु जब उन्हें कोई बड़ा भारी धक्का लगता है, या किसी महापुरुष द्वारा युक्ति से समझाने पर प्रेरणा मिलती है, तब उनकी आँखें खुलती हैं, वे उस अशाश्वत, किन्तु बहुमूल्य मानव-जीवन को सार्थक करने के लिए प्रयत्नशील होते हैं। जीवन को अशाश्वत समझकर क्या करना ? जो मनुष्य जीवन के इस सच्चे स्वरूप को समझ लेता है, कि यह अशाश्वत, अनित्य और अध्र व है, वह फिर गफलत में नहीं रहता, वह जागृत होकर अपने जीवन को सार्थक करने और इस बहुमूल्य मानव-जीवन से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यकतपरूप धर्म की आराधना करता है, निरतिचार व्रत, नियम, त्याग, दान, प्रत्याख्यान आदि का पालन करता है। परन्तु जो जीवन को अशाश्वत समझकर मी मोह-ममता एवं अज्ञानवश पापकर्म में पड़कर जीवन को यों ही नष्ट कर देता है, उसके लिए तिलोक काव्य संग्रह में स्पष्ट बताया है खिण-खिण मांही जैसे अंजलि को तोय घटे, तेल खूटे दीपक को, हीण होत जोत है। ओसबिन्दु सूरज की तेजसु विरलाय जाय, तैसे पल-पल तेरी आयु क्षय होत है ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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