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________________ १७. जिनोपदिष्ट धर्म का सम्यक् आचरण धर्मप्रेमी बन्धुओ! आज मैं आपके समक्ष जिनोपदिष्ट धर्म के आचरण के सम्बन्ध में प्रकाश डालूगा । महर्षि गौतम ने बताया है कि जीवन में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण यदि कोई आचरणीय है तो वह है जिनोपदिष्ट धर्म ! गौतमकुलक का यह तिरासीवाँ जीवनसूत्र है। इसमें स्पष्ट निर्देश है धम्मं चरे साह जिणोवइठं' -जिनोपदिष्ट धर्म का सम्यक् आचरण करो। प्रश्न होता है-विश्व में अनेक धर्म हैं, धर्म-प्रवर्तक भी अनेक हुए हैं, विभिन्न देश-काल-पात्र के अनुसार उनमें से अनेक सम्प्रदाय, मत, पंथ आदि का प्रादुर्भाव हुआ है। फिर जिनोपदिष्ट धर्म को ही आचरणीय क्यों बताया ? जिनोपदिष्ट धर्म की क्या विशेषताएँ हैं ? उस धर्म का पालन करने से व्यक्ति को क्या-क्या लाभ होते हैं ? इन सब मुद्दों पर चिन्तन-मनन किये बिना आप इस जीवनसूत्र के रहस्य को शीघ्र नहीं समझ सकेंगे। इस जीवनसूत्र के महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर चिन्तन-मनन कर लें। विश्व के अनेक धर्म और जिनोपदिष्ट धर्म विश्व में आज अनेक धर्म प्रचलित हैं। सभी धर्म-सम्प्रदायों के दो रूप होते हैं-एक बाह्य, दूसरा अन्तरंग । बाह्य रूप होता है उस-उस धर्म का विधि-विधान, क्रियाकाण्ड, पूजा-उपासना की विधियाँ, तथा वेशभूषा आदि । और प्रत्येक धर्म का अन्तरंगरूप होता है-सत्य, अहिंसा, न्याय, नीति, क्षमा, दया, सेवा, ब्रह्मचर्य, ईमानदारी, अचौर्य, अपरिग्रह आदि विभिन्न तत्त्व । भिन्न-भिन्न धर्मों के बाह्य रूपों में जो अन्तर दिखाई देता है, उसी पर से प्रायः उस धर्म की पहचान होती है। धर्मों के अन्तरंग रूप में बहुत ही कम अन्तर प्रतीत होता है, और खासकर अन्तर होता है-धर्म, सत्य, अहिंसादि तत्त्वों के आचरण का। कोई धर्म अहिंसा पर अधिक जोरदे ता है, कोई सत्य पर, कोई न्याय पर और कोई नीति पर । यों देखा जाए तो विभिन्न धर्म विभिन्न देश-काल में विभिन्न धर्मप्रवर्तकों द्वारा प्रचलित किये गये हैं, इसलिए उनके पारिभाषिक शब्दों में बहुत अन्तर पाया जाता है, परन्तु उनके भावों और भावार्थों पर ध्यान दिया जाए तो उनमें बहुत ही समानता पाई जाती है। जैनधर्म ने अनेकान्तवाद द्वारा उन-उन दर्शनों और धर्मों में समन्वय स्थापित करके बता दिया है कि सभी धर्म आपस में भाई-भाई हैं। जैनधर्म के विभिन्न आचार्यों ने विभिन्न धर्मों के प्रवर्तकों या अवतारों का परस्पर समन्वय किया है। योगीश्वर आनन्दघनजी ने षट्दर्शनों को जिन भगवान के अंग बताया है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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