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सर्वसुखों में धर्मसुख उत्कृष्ट : ५३
मिलेंगे । रुपयों से अनेक शक्तिवर्द्धक पदार्थ तथा टॉनिक आदि मिल सकेंगे, परन्तु शक्ति नहीं। शक्ति-आत्मिक शक्ति के लिए धर्मभावना या उच्चभावना का आश्रय लेना होगा । धन से कदाचित् मनुष्य वैभवशाली और ऐश्वर्यशाली भले ही कहलाने लगे, परन्तु सच्चा आनन्द और स्थायी सुख-शान्ति नहीं पा सकता। रुपये से चश्मा खरीदा जा सकता है, 'दृष्टि' नहीं, विवेकदृष्टि, दिव्यदृष्टि तो प्रायः धन से लुप्त हो जाती है। रुपयों से कोमल गुदगुदी शय्या मिल सकती है, परन्तु चिन्ता-निवारण, निद्रा या निश्चिन्ततापूर्वक शयन का सुख नहीं। रुपयों से आभूषण मिल सकते हैं, परन्तु सौन्दर्य-आन्तरिक सौन्दर्य नहीं; विद्या मिल सकती है, विवेक दृष्टि नहीं; नौकर मिल सकते हैं, सच्ची सेवा नहीं, सच्चा हमदर्दो साथी नहीं; रुपये से जीहजूरिये मिल जाएंगे, सच्चे हितैषी सज्जन नहीं, सच्चे वफादार मित्र भी नहीं।
। दूसरी ओर संसार की उत्तम वस्तुएँ प्रायः बिना रुपये-पैसे के ही मिला करती हैं, त्यागमय, सादे, सात्त्विक जीवन जीने से ही ये मिल सकती हैं ; जो सुख और शान्ति दे सकती हैं।
जीवन का सुख रुपये-पैसे में नहीं है । यदि ऐसा होता तो धनी पुरुष ही सुखी होते । पर हम देखते है कि उनका जीवन सबसे अधिक असंतोष से परिपूर्ण है। सबसे अधिक धनी प्रायः सबसे अधिक रोगी, अतृप्त, अस्वस्थ एवं आन्तरिक दृष्टिकोण से विक्षुब्ध पाया जाता है। उसे अपने धन की ही चिन्ता सदा-सर्वदा लगी रहती है। बड़े-बड़े व्यापारी अपनी साख बनाये रखने के लिए लाखों रुपये ऋण ले लेते हैं। उनकी आन्तरिक मनःस्थिति सदैव अस्थिर बनी रहती है।
इन्द्रिय-विषयों की तृप्ति में सुख मानना भ्रम बहुत-से लोग पाँचों इन्द्रियों के विषयों की पूर्ति या तृप्ति हो जाने में सुख मानते हैं । परन्तु इन्द्रिय-विषयों के सम्मुख होने पर भी अगर ग्रहण करने वाली इन्द्रिय खराब हो, अकस्मात् कोई शोकजनक समाचार प्राप्त हो जाए तो वह इन्द्रिय-विषय धरा रह जाएगा, उसका लाभ या उसकी प्राप्ति उसे नहीं हो सकेगी। इन्द्रियविषय का उपभोग वह नहीं कर सकेगा। इन्द्रिय-विषय इस विराट विश्व में यत्र-तत्र व्याप्त हैं। परन्तु उनका उपभोग करना अपने अधीन नहीं है, पराधीन है। अतः विषयों में अपने आप में कोई सुख नहीं होता । मनुष्य अपने मन से विषयों में सुख की कल्पना कर लेता है, इसलिए उनके पीछे पड़कर अपनी नींद हराम करता है । जैसे कुत्ता हड्डी चबाने में सुख मानता है, हड्डी चबाने से उसके मुंह में खून निकल आता है, अतः वह अपने ही खून को हड्डी का स्वाद मानकर चाटता है । वास्तव में हड्डी चबाने से उसे सुख नहीं होता। इसी प्रकार सांसारिक विषय-वासनाओं और भोग-विलासों में मनुष्य सुख ढूँढ़ता है । मगर विषयों में सुख खोजना बालू में से तेल निकालने की तरह है। विषय-वासनाओं की पूर्ति के पीछे पड़कर मनुष्य अपने सारे सुखों को नष्ट कर डालता है । धन, स्वास्थ्य, क्षमता, शक्ति, समय, स्फूर्ति, आत्मीयता आदि सब विशेषताएँ
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