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५२ : आनन्द प्रवचन : भाग १२
पहले सन्तान की इच्छा, सन्तान प्राप्त होने पर पालन-पोषण की चिन्ता, फिर उसके विनीत, सच्चरित्र, सुशील निकलने की कामना, उसके विवाह की चिन्ता, फिर धन कमाने की आशा, पुरानी प्रतिष्ठा को कायम रखने की कल्पना आदि अनेक प्रकार की चिन्ताएँ मन को विक्षुब्ध किये रहती हैं। भला बताइए, सन्तान प्राप्ति में कहीं सुख है ?
धन की प्रचुरता सुख का कारण नहीं - बहुत से लोग कहते हैं, हमारे पास धन नहीं है, अगर धन होता तो हम सुखी हो जाते । परन्तु बन्धुओ ! मैं आपसे पूछता हूँ कि क्या धन से सुख प्राप्त हो सकता है ? धन से सुख का कोई सीधा सम्बन्ध है ? धन या वैभव अपने आप में कोई सुख का साधन नहीं है । अधिकांश व्यक्तियों के पास धन और वैभव की कोई कमी नहीं, फिर भी वे दुःखी और अशान्त रहते हैं । धन की सुरक्षा की चिन्ता रात-दिन उन्हें सताती रहती है । फिर धनिक परिवार अधिक खर्चीला और मौज-शौक का जीवन बिताने का आदी बन जाता है, और आप जानते हैं लक्ष्मी चंचल है, वह सदैव एक व्यक्ति के पास, एक सी नहीं रहती । इस दृष्टि से जब धनिक के पास धन कम हो जाता है, तब उसे अधिकाधिक धन कमाने की चिन्ता होती है, इस चिन्ता में न तो वह सुख से खा-पी सकता है, और न ही निश्चिन्त होकर सो सकता है ।
अधिक धन पर चोर, सरकार, डाकू, भाई-बन्धु आदि सबकी दृष्टि लगी रहती है। सरकार के कर-भार की चिन्ता धनिक को चैन नहीं लेने देती । चोरडाकुओं ने अगर कभी धन का सफाया कर दिया, तब तो उस धन के वियोग में मनुष्य के प्राण ही सूख जाते हैं । धन आर्तध्यान और रौद्रध्यान का कारण बनता है । प्रचुर धन हो जाने से मनुष्य धर्माचरण से विमुख होकर नाना दुर्व्यसनों में फँस जाता है; विलासिता और कामवासनाओं का शिकार बन जाता है। धनान्ध मनुष्य कर्तव्याकर्तव्य, हिताहित, कल्याण - अकल्याण, पाप-पुण्य को भूल जाता है । कई बार अविवेकी बनकर पशुओं या दानवों-सा जीवन बिताने लगता है। धन को लेकर भाई- भाइयों में आपस में इतना मनमुटाव बढ़ जाता है कि अदालतों की सीढ़ियों पर चढ़कर वे हजारों रुपये फूँक देते हैं, वैमनस्य और दंष बढ़ता है सो अलग।
fron यह है कि धन मनुष्य को सुखी नहीं रख सकता, क्योंकि वह जहाँ भी रहेगा वहाँ प्रायः ईर्ष्या, द्व ेष, छल-कपट, भय, असन्तोष, विषय-वासनाएँ आदि कई दुर्गुणों के कीड़े पनपेंगे । इससे मनुष्य के अन्तःकरण में सदैव खिन्नता बनी रहेगी । कई लोग यह कहते हैं कि "धन होगा तो हम सुन्दर स्वादिष्ट पकवान, मिठाइयाँ, बढ़िया भोजन खरीद सकेंगे; सुख के प्रचुर साधन पा सकेंगे, नौकर-चाकर रख सकेंगे, बाग-बंगला, कार, दवाइयाँ आदि प्राप्त कर लेंगे ।" परन्तु यह भी एक प्रकार का भ्रम है । धन से कदाचित् स्वादिष्ट पक्वान्न मिठाइयाँ और चटपटे खाद्य पदार्थ खरीदे जा सकते हैं, परन्तु विवेक, स्वस्थ रहने की कला, सद्गुण और धर्म नहीं खरोदा जा सकेगा । विवेक आदि पदार्थ तो प्रचुर धन देने पर भी बाजार में नहीं
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