SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 78
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सर्वसुखों में धर्मसुख उत्कृष्ट : ५१ आज एक व्यक्ति का ऑफिसर उस पर खुश है, तो वह अपने आपको भाग्यशाली और सुखी मानता है, कल वही किसी बात पर नाराज हो जाएगा तो वह तिलमिला उठेगा, दुःखी मानने लगेगा। नौकरी छोड़ देने की बात सोचेगा। सन्तान का सुख : एक मृगतृष्णा-इसी प्रकार सन्तान का सुख भी एक मृगमरीचिका है । परन्तु सन्तान के माता-पिता बनने वालों का सन्तान-सुख के पीछे दृष्टिकोण यह है कि-(१) वे गौरव का अनुभव करते हैं, बड़प्पन की गुप्त इच्छा सृप्त होती है, हमारा नाम चलेगा, रिक्तस्थान की पूर्ति करेगा, हमारी सेवा करेगा, बुढ़ापा, बीमारी आदि में सहारा देगा, घर को सुख-सम्पन्न बनाएगा । (२) बालक के माध्यम से मनुष्य अपनी गुप्त अतृप्त इच्छाएँ पूर्ण करना चाहता है। जो व्यक्ति जिंदगीभर निर्धन रहे, वे अपने पुत्र से यह आशा रखते हैं कि वह पर्याप्त धनसंचय करके उनके लिए ऐश-आराम के साधन प्रदान करेगा। जो कुरूप पत्नी वाले हैं, वे सुन्दर पुत्रवधू की कामना करते हैं, जो स्वयं दुर्बल हैं, वे अपने पुत्र को बलवान देखना चाहते हैं। विगत बाल्यावस्था का आनन्द बच्चों के द्वारा प्राप्त करना चाहते हैं । जीवन में प्राप्त असफलताओं को पुत्र द्वारा सफलता में परिणत हुई देखना चाहते हैं । अपने अधूरे कार्यों, इच्छाओं तथा आशाओं को सन्तान द्वारा पूरे होते देखना चाहते हैं । पुत्र यश, प्रतिष्ठा और सौभाग्य का चिह्न भी समझा जाता है। परन्तु यह गलत धारणा है कि अपने ही बच्चों द्वारा ये इच्छाएं पूर्ण हो सकती हैं । मोहवश सन्तान-प्राप्ति को मनुष्य सुख का आधार मानता है। आजकल के अधिकांश पुत्र सपूत शब्द के अधिकारी नहीं होते। किसी भी स्कूल-कॉलेज के लड़कों के विषय में आप उनके अध्यापकों से पता लगाएंगे तो वे आपको उनकी अनेक शरारतों एवं कुटेवों के विषय में बताएँगे । आजकल का युवक प्रायः उत्तरदायित्वहीन, उद्दण्ड, अनुशासनहीन, अशिष्ट एवं मिथ्या दम्भ से भरा रहता है। आर्थिक दृष्टि से स्वावलम्बी बनने, जीवन की अड़चनों से युद्ध करने की उसे चिन्ता नहीं । यौवन के उन्माद में आजकल के उद्दण्ड लड़के वृद्ध माता-पिता की मुसीबतों को समझने का प्रायः प्रयत्न नहीं करते। अनेक अशिष्ट पुत्र माता-पिता की अवज्ञा करते देखे जाते हैं। कई जगह पिता-पुत्र में वैचारिक संघर्ष, तनातनी और मनोमालिन्य भी बढ़ता जाता है । बेचारे पिता को मुंह की खानी पड़ती है। वर्तमान युवकों की टीपटाप, फैशन, बाहरी दिखावा, शृंगार और खर्चा इतना अधिक बढ़ गया है कि बेचारे पिता को पढ़ाते-पढ़ाते अपना घरबार और बहुमूल्य पदार्थ बेच देने पड़ते हैं। अतः कमाऊ पूत की आशा रखना मृगतृष्णा ही है। बुढ़ापे का सहारा बनने के बदले वह सिर पर सवारी करने वाला शत्रु बन जाता है । प्रायः देखने में आता है कि जो पिता पुत्र के लिए संचित पूंजी या जमीनजायदाद छोड़ जाते हैं, उनके पुत्र प्रायः फिजूलखर्च, निकम्मे, दुश्चरित्र और आलसी निकलते हैं । वे पिता को एवं कुल को बदनाम करते हैं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy