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________________ ५४ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ विषयों और वासनाओं की आग में जलकर भस्म हो जाती हैं । जीवन का हरा-भरा वृक्ष सूखकर ठूंठ-सा हो जाता है । इसलिए पंचेन्द्रिय-विषयों और विलासों में सुख खोजना या पाने की आशा करना दुराशा मात्र है । पाश्चात्य विचारक कॉल्टन (Colton) ने ठीक ही कहा है— "The seeds of repentance are sown in youth by pleasure, but the harvest is reaped in age by suffering." " इन्द्रिय-सुख के द्वारा जवानी में पश्चात्ताप के बीज बोए जाते हैं, किन्तु बुढ़ापे में उसकी फसल कटाई होकर पीड़ा भोगते हुए इकट्ठी की जाती है ।" उदाहरण के लिए — जीभ को ले लें । वह वश में नहीं रहती । उसके कल्पित सुख के लिए सुबह से लेकर रात्रि तक बीसों तरह की सुस्वादु वस्तुएँ चाहिए । आइसक्रीम, चाय, शराब, सिगरेट, मांस, बढ़िया मिठाइयाँ, नमकीन, सोडावाटर या लेमन, चुस्की, कीमती अचार -मुरब्बे चाहिए । नेत्र सुख के लिए उन्हें बढ़िया मकान, सुन्दर वेशभूषा, गद्दे, कोच, सोफासेट, चमचमाती कार चाहिए । कल्पित घ्राण- सुख के लिए इत्र, तेल, सुगन्धित फुलेल आदि चाहिए । एक सूअर गर्मी से घबराकर एक गन्दे, कीचड़ से भरे पानी के गड्ढे में लोट रहा है । वह उस गड्ढे में पड़ा पड़ा सोचता है - " मैं कितना सुखी हूँ । पेट भर विष्ठा मिलती है तथा आलस्यमय जीवन का आनन्द लेने के लिए यह गंदगी का गड्ढा ! अहा ! बड़ा आनन्द है ।" पश्चिम के एक बहुत बड़े विचारक ने ठीक ही कहा है "Worldly and sensual pleasures for the most part, are short, false, and deceitful. Like drunkenness, they revenge the jolly madness of one hour with the sad repentance of many." “सांसारिक और ऐन्द्रियक सुख प्रायः क्षणिक, मिथ्या और छलपूर्ण होते हैं, मद्यपान की तरह एक घंटे की खुशी के पागलपन का बदला वे अनेक घंटों के उदास पश्चात्ताप के रूप में देते हैं । " कुछ व्यक्ति सूअर की भांति निम्नतम घृणित जीवन व्यतीत कर रहे हैं । सूअर की मनःस्थिति के अनुसार गंदगी, कीचड़ और दुर्गन्ध सुखदायक है । मनुष्यों की मनःस्थिति कुछ भिन्न प्रकार की है, वे इन्हें तो दुःखदायक समझते हैं; किन्तु मांस, मदिरा, भांग, तम्बाकू आदि अभक्ष्य और गंदे पदार्थों का खूब उपभोग करते हैं । नशे में चूर होकर वे इन्द्रिय-सुख के पीछे पागल होकर दौड़ते हैं । वासनापूर्ति में उन्हें जीवन का अधिकाधिक रस आता है । उनका जीवन सिर्फ एक छोटे-से दायरे में बँधा रहता है । उदर के लिए उचित-अनुचित खाद्य की प्राप्ति तथा वासना (मैथुन) सुख के लिए विपरीत लिंग वाले साथी की प्राप्ति । उनका इस प्रकार पशुवत् जीवन ज्यों का त्यों व्यतीत होता जाता है । इन्हें इसी प्रकार का सुख सर्वोत्कृष्ट Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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