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सर्वसुखों में धर्मसुख उत्कृष्ट : ५५
लगता है, भले ही इसके लिए उन्हें अनेक कष्ट उठाने पड़ें। वे अपने ही स्वार्थ और अहंकार में डूबते-उतराते जीवन का बहुमूल्य समय बर्बाद कर देते हैं । संसार के थपेड़े खाते हुए वे अनेक बच्चों को जन्म देकर इस लोक से विदा हो जाते हैं ।
निष्कर्ष यह है कि सुख वासनापूर्ति में नहीं, क्योंकि क्षणभर में उसके प्रति अनिच्छा व अरूचि उत्पन्न हो जाती है । एक बार सम्भोग के पश्चात् मन में जो ग्लानि और पश्चात्ताप होता है, उसे आत्मा बुरी तरह धिक्कारती है; फिर भी दुःख की कड़वी घूंट को सुख मानकर विषयी मनुष्य इस विष का पान करता रहता है । बच्चों का बोझ आयुपर्यन्त कम नहीं होता । यदि कोई बच्चा दुश्चरित्र, पागल या किसी दुर्बलता को लेकर जन्मा तो सदा के लिए सुख की इतिश्री हो जाती है ।
फिर अनेक प्रकार की कृत्रिम आवश्यकताओं तथा पत्नी, बच्चों की फरमाइशों की पूर्ति करते-करते जीवन का सच्चा आनन्द, रस एवं सत्त्व नष्ट हो जाता है । आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए धन जुटाने में वे झूठ, कपट, मिथ्याचार आदि अनेक तिकड़मों का आश्रय लेते हैं ।
इस मनःस्थिति के लोगों से आप पूछ देखें- - "क्यों भाई ! आपके पास तो रुपये, मकान, अच्छा परिवार आदि सब कुछ है, अब तो आप सुखी होंगे ?" तब तपाक से वे कहेंगे — "कहाँ सुखी हैं, हम ! हमें कमाने की चिन्ता, लड़के-लड़की के विवाह की चिन्ता, कर्ज चुकाने की चिन्ता, व्यापार की चिन्ता, शरीर की चिन्ता, परिवार की चिन्ता, मुकद्दमेबाजी की चिन्ता आदि कई दुश्चिन्ताएँ हैं, हम कहाँ सुखी हैं ? "
मानसिक सुखों का भ्रमजाल
कई लोग बाह्य प्रतिष्ठा, सम्मान, समाज में इज्जत, प्रसिद्धि एवं कीर्ति पाने में सुख मानते हैं, परन्तु यह मन का भ्रमजाल है । याद रखिये, आज लोग आपसे मीठीमीठी बातें करते हैं, प्रशंसा के पुल बाँधते हैं, कल आपसे तनिक सी गलती होते ही या उनका तनिक-सा स्वार्थ भंग होते ही वे दूध में से मक्खी की भांति निकाल फेंकते हैं । यही कारण है कि बड़े-बड़े नेताओं, समाज-सुधारकों, उपदेशकों या धर्म-प्रचारकों के अनेक शत्रु बन जाते है, वे उन्हीं तथाकथित निहित स्वार्थी शत्रुओं द्वारा मार डाले जाते हैं । ईसामसीह को क्रूस पर लटका दिया गया, भगवान् महावीर के कानों में कीले ठोके गये, ऋषि दयानन्दजी को काँच खिला दिया गया, महात्मा गांधी को गोली मार दी गई । क्या इन महान् आत्माओं की सेवाएँ कम थीं ? किन्तु जनता की मनोवृत्ति सदैव बदलती रहती है । अतः प्रशंसा, प्रसिद्धि, कीर्ति और प्रतिष्ठा में सुख मानना भ्रम है ।
कई लोग अपनी स्त्री, बच्चों के प्रति प्रेम करने में सुख मानते हैं, किन्तु उनका वह प्रेम स्वार्थ, मोह और आसक्तिमूलक होने से परिणाम में दुःखजनक है । इसलिए राग या मोह पैदा करने वाला कोई भी प्रेम दुःखदायक ही होता है ।
कई लोग इष्ट वस्तु की प्राप्ति और अनिष्ट के वियोग में सुख मानते हैं, परन्तु
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