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________________ ५६ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ यह भी क्षणिक सुख है, स्थायी सुख नहीं । जिस इष्ट वस्तु की प्राप्ति में वह आज सुख मानता है, उसके वियोग या विकृत होते ही वह दुःख मानने लगेगा । जिस अनिष्ट के वियोग में आज वह सुख के स्वप्न देख रहा है, उसी अनिष्ट का संयोग उपस्थित होते ही वह तिलमिला उठेगा । सामान्यतया लोग सुख को भविष्य की किसी उपलब्धि, परिस्थिति अथवा अवसर में निहित देखते हैं । वे यों सोचा करते हैं कि यदि आज कष्ट है, तो कोई बात नहीं, जैसे-तैसे रो-धोकर काट लेंगे, किन्तु निकट भविष्य में हमारा वेतन अथवा आय बढ़ जाएगी, तब फिर सुख बरसेगा । कई लोग सोचते हैं - बच्चे पढ़ रहे हैं, अभी तो कुछ कष्ट रहेगा, लेकिन जब पढ़-लिखकर काम-धंधे में लग जाएँगे, तो फिर आनन्द की कमी न रहेगी। कभी सोचते हैं - लड़के-लड़कियों का विवाह हो जाएगा, तब निश्चिन्त हो जाएँगे और सुख की जिंदगी बिताएँगे। इसी प्रकार कई सोचते हैंपेंशन मिलने पर या बंगला, मोटर एवं मकान मिल जाने पर सुख ही सुख हो जाएगा । तात्पर्य यह है कि अधिकांश लोग अपने सुख को सुदूर भविष्य के किसी उद्देश्य, गन्तव्य अथवा कामनापूर्ति में देखते हैं । परन्तु यह धारणा गलत है कि मनुष्य का सुख भविष्य के किसी गन्तव्य में है; वस्तुतः वह वर्तमान में ही है, और वहीं प्राप्त किया जा सकता है । जो वर्तमान में आनन्द नहीं पा सकता, वह भविष्य में भी नहीं पा सकता । मान लो, भविष्य में उनकी कामना पूर्ति हो भी जाए तो भी एक स्थिति पा लेने के बाद दूसरी स्थिति और दूसरी के बाद तीसरी स्थिति की आवश्यकता सता सकती है । मनुष्य की कामनाओं और इच्छाओं का कोई अन्त भी नहीं । इसलिए सुख लिए भविष्य की प्रतीक्षा करना व्यर्थ है । मनोरंजन और हास - विलास के नाम पर विषयों और व्यसनों के बंदी बन जाने वाले लोग सुख की मृगतृष्णा में भूलते-भटकते हुए जीवन की बाजी हार जाते हैं । इसी प्रकार व्यर्थ की आवश्यकताओं को गले में डालकर सुख की आशा करना व्यर्थ है । जो व्यक्ति यह सोचता है कि अमुक व्यक्ति ने उसका अपमान, अनादर किया, या किसी प्रकार का कष्ट दिया अतः मुझे उससे बदला लेने पर ही सुखशान्ति होगी, वह व्यक्ति स्वप्न में भी मानसिक सुख-शान्ति प्राप्त नहीं कर सकता, ही आध्यात्मिक मार्ग में अग्रसर हो सकता है । जहाँ प्रतिहिंसा की भावना है, वहाँ सुख-शान्ति कैसे हो सकती है ? सांसारिक सुख और पारमार्थिक सुख इस प्रकार संसार में सुख तो अनेक प्रकार के हैं, किन्तु वे क्षणिक हैं, सुखाभास हैं, दुःखजनक हैं । ऐसे सुख का आधार ही गलत है । वस्तुनिष्ठ, व्यक्तिनिष्ठ, इन्द्रिय Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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