________________
सर्वसुखों में धर्मसुख उत्कृष्ट : ५७
विषयनिष्ठ या मनः कल्पनानिष्ठ सुख सांसारिक है, स्वार्थजन्य है । फिर कई लोग तो चोरी करने में, शराब - मांस का सेवन करने में, येन-केन-प्रकारेण धन इकट्ठा करने में सुख मानते हैं, परन्तु सुख की यह कल्पना भ्रामक है । फिर भी लोग इन सब सांसारिक सुखों की प्राप्ति के लिए अपनी बुद्धि, शक्ति, विवेक, विश्वास और योग्यता के अनुसार प्रयत्न भी करते हैं । एक वस्तु में यदि सुख की कमी दिखाई देती है तो दूसरी ओर भागते हैं । सांसारिक सुखों की अपेक्षा पारमार्थिक सुख की ओर आकृष्ट होने के पीछे भी यही भावना होती है कि मनुष्य को इन्द्रियजन्य सुख क्षणिक और व्याधि-उत्पादक लगते हैं । इसलिए वह ऐसे सुख की कल्पना करता है, जिसमें टिकाऊपन हो, स्थिरता हो और दुःख मिश्रित न हो । जब कभी इन सांसारिक सुखों नाश होता है तो मनुष्य घबरा उठता है, सांसारिक सुखों के प्रति मोह नहीं छूटता, किन्तु मनुष्य का चित्त जब स्थूल सुखों से तृप्त नहीं हुआ, स्थूल सुखों को अपनाने का परिणाम उल्टा आया, तब उसने पारमार्थिक सुख को अपनाना चाहा । यथार्थ सुख प्राप्ति का मूलाधार धर्म है इसी बात का समर्थन एक आचार्य करते हैं—
सुखार्थाः सर्वभूतानां मताः सर्व प्रवृत्तयः । सुखं च न बिना धर्मात् तस्माद्धर्म परो भवेत् ॥
सभी प्राणियों की सर्व प्रवृत्तियाँ सुख के लिए होती हैं । परन्तु धर्म के बिना सुख प्राप्त करना असम्भव है । इसलिए मनुष्य को धर्मपरायण होना चाहिए । तीर्थंकर भगवन्तों ने एवं साधु-साध्वियों को प्रेरणा दी -
'धम्मो मंगलमुक्किट्ठ अहिंसा संजमो तवो ।'
धर्म उत्कृष्ट मंगल (सुखरूप ) है । वह अहिंसा, संयम और तपरूप है । धर्म सुख : सभी सुखों से श्रेष्ठ : क्यों, कैसे ?
अन्य सभी सुख एक ओर हों और दूसरी ओर केवल एक धर्मसुख हो, तो धर्मसुख श्रेष्ठ होता है । धर्मसुख का स्पष्ट अर्थ हुआ - आत्मिक सुख । जो आत्मा से सम्बन्धित सुख हो, जो स्वाधीन सुख हो, वहो धर्मसुख है । कहा भी है- 'सर्वमात्मवशं सुखम्' जो आत्माधीन है, वह सब वास्तविक सुख है । धर्मसुख का मूल स्रोत कोई पदार्थ, साधन, व्यक्ति या परिस्थिति नहीं, अपितु आत्मा है । सुख का वह निर्झर अपने भीतर से फूटता है । धर्मसुख आत्मसन्तोष, आत्मतृप्ति, आत्मानन्द, आत्मविकास और आत्मकल्याण ही माना गया है । आध्यात्मिकता के आधार पर प्राप्त यह सुख ही सच्चा और श्रेष्ठ है ।
कई लोग कहते हैं, संसार में रहकर सांसारिक गतिविधियों से बचा नहीं रहा जा सकता, उनमें चाहे – अनचाहे पड़ना ही पड़ता है किन्तु ज्ञानी पुरुष कहते हैं- संसार में रहते हुए भी संसार से - सांसारिक मोहमाया से बहुत अंशों में
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org