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________________ ५८ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ अलिप्त रहा जा सकता है, जो सांसारिक राग-द्व ेष, काम-क्रोध आदि विकारों से जितना अलिप्त रहता है, पदार्थों की, व्यक्ति की, परिस्थितियों की या अमुक संयोगों की प्राप्ति - अप्राप्ति में सुख-दुःख की कल्पना नहीं करता वह उतने अंशों में धर्मसुख प्राप्त करता है । इसीलिए कहा है 'एतसुही साहू वीयरागी' देवलोकों के देव भी उतने सुखी नहीं हैं, न राजा-महाराजा या चक्रवर्ती भी सुखी हैं, न कोई धनिक या साधनसम्पन्न इतना सुखी है, जितना सर्वांगसुखी सर्वथा सुखसम्पन्न वीतराग पुरुष है । इससे सिद्धान्त यह निकला कि जो जितना अधिक राग-द्वेष-मोह से मुक्त होगा, वह उतना ही धर्मसुख से ओत-प्रोत होगा । जो सांसारिक सुखों में सांसारिक भाव से पड़ा रहता है, उनमें आसक्ति करता है. उन्हीं को सर्वस्व मान कर चलता है, वह उसके दुःखों से कभी ऊपर नहीं उठ पाता । आध्यात्मिक विचार वाला व्यक्ति संसार में रहता हुआ भी सांसारिक प्रपंचों या मोह-माया से ऊपर उठा हुआ रहता है । वह उसके अशुभ प्रभाव से अपने व्यक्तित्व की रक्षा करने में प्रमाद नहीं करता । संयोगवश या पूर्वकर्मवश यदि उसके सामने दुःख की परिस्थिति आ भी जाती है तो भी वह सुख की भाँति निर्लिप्त भाव से उसे भोग ता है और जल में कमलवत् उससे अलग ही रहता है । ऐसे उन्नत व्यक्तित्व वाले व्यक्ति को वैसी उच्च मनःस्थिति में कितना सुख होता होगा, इसे तो एक आध्यात्मिक व्यक्ति ही जान सकता है । अतः अन्तर्मुखी वृत्ति का सहारा लेने वाला व्यक्ति इस दुःखपूर्ण संसार में भी सुखी रह सकता है । I धर्मसुख के महत्त्व को समझने वाले व्यक्ति परिष्कृत और आध्यात्मिक दृष्टिकोण वाले होते हैं । वे सांसारिक सुख-दुःखों को चलती-फिरती छाया से अधिक महत्त्व नहीं देते । वे उसकी उसी प्रकार उपेक्षा कर देते हैं, जिस प्रकार खेत के काम में तल्लीन किसान आकाश में होते हुए धूप-छाँह के खेल की ओर ध्यान नहीं देते । वे इस वास्तविकता से अनभिज्ञ नहीं होते कि सुख-दुःख, अनुकूलता - प्रतिकूलता की धनात्मक एवं ऋणात्मक परिस्थितियों में तपकर ही मानव-जीवन पुष्ट होता है । जीवन में जो जैसी परिस्थिति जब-जब आती है, वे उसका हँसी-खुशी के साथ सामना करते हैं, वे समझते हैं कि धर्मपालन में कष्ट तो होता है, किन्तु वह कष्ट जीवन को उन्नत एवं विकसित बनाने के लिए सुखरूप होता है । जैसे माता को बच्चे के पालन-पोषण में कष्ट तो होता है, किन्तु वह उस कष्ट को कष्ट नहीं मानती, बल्कि बच्चे का पालन-पोषण सन्तुष्ट और हर्षित होकर करती है । उसे बच्चे का पालन-पोषण सुखरूप प्रतीत होता है । उसी तरह धर्मसुख की निष्ठा वाले व्यक्ति सांसारिक सुख में प्रसन्न और दुःख में रोने की बालवृत्ति से ऊपर उठकर अहिंसा, सत्य, सेवा, सहिष्णुता, तितिक्षा, क्षमा आदि धर्मों का पालन करने के लिए सांसारिक सुखों को महत्त्व नहीं देते और न ही सांसारिक दुःखों से घबराते हैं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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