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________________ सर्वसुखों में धर्मसुख उत्कृष्ट : ५६ संसार की इस परिवर्तनशीलता के बीच वे अपनी एक-सी दुनिया बसाने की आकांक्षा और केवल सांसारिक सुखों की कामना करते रहने की भूल कदापि नहीं करते। वे इस सांसारिकता से ऊपर उठकर आत्मिक जीवन में जीते हैं और हर परिस्थिति को धर्मपालन के लिए उपयुक्त अवसर समझकर सदैव प्रसन्न एवं सन्तुष्ट रहते हैं। आध्यात्मिक व्यक्ति इस आत्मसुख (धर्मसुख) के अतिरिक्त भौतिक सुखों में विश्वास नहीं करते । वे कभी यह मानने को तैयार नहीं होते कि शारीरिक एवं सांसारिक भोगों में भी सुख की उपलब्धि हो सकती है । प्रमादी, विलासी, भोगी और आलसी जीवन, जिसे सामान्य लोग सुखी जीवन कहते हैं, आध्यात्मिक दृष्टि वाला, धर्मसुख से ओत-प्रोत बुद्धिमान व्यक्ति उसे विषाक्त और विषम जीवन मानता है । भौतिक पदार्थों, इन्द्रिय-विषयों और इच्छाओं से सम्बन्धित सारे सुखों को वह दुःखान्त समझता है, क्योंकि ये सभी नाशवान्, परिवर्तनशील एवं क्षणभंगुर होते हैं। सच्चे धर्मसुख का उपासक व्यक्ति इनसे असम्बद्ध रहकर ही संसार में रहता है, सांसारिक पदार्थों का उपभोग भी इसी दृष्टिकोण से करता है। __ आज लोगों को धर्म से प्राप्त होने वाले शाश्वत एवं स्वाधीन सुख पर अश्रद्धा क्यों है ? इसका कारण यदि आप जानना चाहते हैं तो यही है कि अधिकांश लोग सांसारिक भोगजन्य पदार्थनिष्ठ सुखों में ही फंस जाते हैं, उनके पीछे रहे हए विकारों या दुःखों को देख नहीं पाते और मोहान्ध होकर उन्हीं क्षणिक सुखों के पीछे पागल बने रहते हैं, दुःख पाते रहते हैं। इसी कारण धर्मसुख के प्रति उनकी श्रद्धा नहीं जमती । धर्म (अहिंसा, संयम, तप, तितिक्षा, क्षमा, सेवा आदि) के आचरण के पीछे जो आत्म-सन्तोष, आत्मतृप्ति, आत्मविकास एवं आत्म-रमण का सुख रहा हुआ है, उसे सांसारिक सुखों में मुग्ध और लुब्ध व्यक्ति देख नहीं पाता, जबकि धर्मसुख के प्रति अखण्ड श्रद्धा रखने वाला व्यक्ति सांसारिक सुखों के पीछे रहे हुए एकान्त दुःखों को देख पाता है। धर्मसुख के चार आधार धर्मसुख क्या है ? वह समस्त सुखों में सर्वोपरि है, यह बात जान लेने के बाद प्रश्न उठता है कि उस धर्मसुख के आधारभूत तत्त्व कौन-कौन से हैं ? किन-किन आलम्बनों के सहारे धर्मसुख प्राप्त हो सकता है ? धर्मसुख के मुख्यतया चार आधार हैं, जिनके सहारे से मनुष्य सांसारिक सुखों की अपेक्षा कई गुना अधिक सुख प्राप्त कर सकता है, और वह स्थायी, जीवनपर्यन्त रहने वाला, स्वाधीन और बन्धनों को काटने वाला होता है। वे चार आधार ये हैं--(१) आत्मशुद्धि (२) त्यागवृत्ति (३) अहंकारशून्यता और (४) सहिष्णुता । क्रमशः चारों पर कुछ विश्लेषण करना आवश्यक है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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