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________________ ६० : आनन्द प्रवचन : भाग १२ आत्मशुद्धि : धर्मसुख का प्रमुख आधार __ आप सब का यह प्रतिदिन का अनुभव है कि पेट में मल पड़ा हो, तब तक चैन नहीं पड़ता; जब पेट साफ हो जाता है, तभी शरीर स्वस्थ होता है, भूख लगती है, प्रत्येक कार्य में रुचि और उत्साह की वृद्धि होती है । इसी प्रकार शरीर में पड़े हुए अन्य मलादि विकार भी जब तक साफ न हों, तब तक शरीर रोगी रहेगा। शरीर में डाली हुई कोई भी खाद्य वस्तु ठीक से हजम नहीं होगी। गैस, रक्तचापः सिरदर्द, कोष्ठबद्धता आदि अनेक रोग घेर लेंगे । निष्कर्ष यह है कि शरीर की सर्वथा शुद्धि के बिना शारीरिक सुख नहीं प्राप्त हो सकता। इसीलिए कहावत है'पहला सुख निरोगी काया। इसी प्रकार आत्मा में भी जब तक क्रोध, अभिमान, माया, लोभ, राग-द्वेष, मोह, काम, मद, मत्सर, तृष्णा, असन्तोष, असहिष्णुता, कीर्ति आदि की लालसा इत्यादि विकार मल जमे रहेंगे, वे बाहर नहीं निकलेंगे, उन्हें आत्मा से खदेड़ा नहीं जायेगा, इन पापों एवं विकारों को इकट्ठे करते रहा जाएगा; तब तक बाहर से-ऊपर-ऊपर से पालन किये हुए क्रियाकाण्डों से, बाह्य तपों से, कष्ट सहने से, यहाँ तक कि सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास सहने से भी कुछ नहीं होगा; वह एक प्रकार से खोखली, घुन लगी हुई लकड़ी पर रंग-रोगन करने के समान है । इसीलिए एक आचार्य ने धर्म का लक्षण किया है-आत्मशुद्धिः साधनं धर्मः'-धर्म आत्मशुद्धि का साधन है। जीवन में जितनी पवित्रता, शुद्धता आएगी, उतना ही आत्मविकास होगा, आत्मशक्ति बढ़ेगी, आत्मसुख बढ़ेगा। परन्तु उस पवित्रता और शुद्धता के लिए पूर्वकृत पापों, अशुभकर्मों अथवा इस जन्म में आत्मा में जमा हुए क्रोधादि कषाय, काम, मद, मोह, रागद्वेष आदि विकार-मलों का प्रक्षालन करना होगा। यह कार्य किसी शास्त्र या ग्रन्थ को सुन लेने या तिलक-छापे लगा लेने, मुह पर केवल मुखवस्त्रिका बाँध लेने, प्रमाणनिका ले लेने या अन्य कोई वेष बना लेने मात्र से नहीं होगा। सरलतापूर्वक अपने अन्तर्-बाह्य दोनों को पवित्र और उज्ज्वल बनाने से ही यह कार्य होगा। __ मानव-मन में न जाने कितने दोष एवं पातक चोर की तरह बैठे रहते हैं। बहुत बार कई साधक अपने उच्च पद एवं ज्ञान के अभिमान में होते हैं, उन्हें पता ही नहीं चलता कि किस प्रकार उनके अन्तर् में मद, मोह, अहंकार एवं मत्सर दुबके हुए बैठे हैं ? यही निर्बलताएँ आध्यात्मिक पथ पर आगे बढ़ने में रोड़ा अटकाती हैं। भ्रमवश मनुष्य इन अवरोधों का कारण बाहरी शक्ति को समझता है। परन्तु वास्तव में उसके अपने मानसिक दोष ही प्रगति पथ में रोड़े बनते हैं। अतः धर्मसुख की उपलब्धि के लिए मानसिक परिष्कार बहुत आवश्यक है । असद्भावनाओं, मलिन विचारों, ईर्ष्या, द्वेष, लोभ, मोह, मत्सर, क्रोध आदि आवेगों को खोज-खोजकर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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