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________________ सर्वसुखों में धर्मसुख उत्कृष्ट : ६१ अपने अन्तःकरण से निकालकर बाहर फेंकते रहना चाहिए । स्वार्थ, विडम्बना, प्रवञ्चन। और तृष्णापूर्ण प्रवृत्ति धर्मसुख को नष्ट कर देती हैं । 1 आत्मशुद्धि के लिए जैन शास्त्रों में चार प्रक्रियाएँ बताई गई हैं१. आलोचना, २ . निन्दना ३. गर्हणा और ४ प्रायश्चित्त । मैत्री आदि भावना, क्षमापना और वन्दना ये तीन प्रक्रियाएँ इनकी सहायक हैं । दोष- पाप का लेशमात्र भी न रहना चाहिए, यही इन चारों प्रक्रियाओं का उद्देश्य है । संक्षेप में इतना ही कहना है कि सच्चे हृदय से आलोचना करने से पाप नहीं रहता । आत्मा शुद्ध हो जाती है । शुद्धि जहाँ तक नहीं होती, वहाँ तक वह पाप मन में खटकता रहता है, दुःखित करता रहता है, इसलिए निःशल्य होकर विशुद्ध हो जाने से धर्मसुख प्राप्त होता है । आन्तरिक सुख की प्राप्ति के लिए भी मनुष्य को अपना व्यक्तित्व पूर्ण उज्ज्वल, निर्दोष और निर्मल बनाना चाहिए । दोष, पाप और मल की विद्यमानता ही व्यक्तित्व को मलिन, अपवित्र एवं निकृष्ट बना देती है । जो वासनाएँ, अभीप्साएँ एवं भावनाएँ अपने व्यक्तित्व के अनुरूप न हों, उन्हें तुरंत ही निकाल फेंकना चाहिए । जिस दिन इन विकारों को फेंक दिया जाएगा, उसी दिन व्यक्तित्व दूध के समान उज्ज्वल तथा निर्विकार हो उठेगा । उसके साथ ही अन्तर्ज्योति दीप्त हो उठेगी, व्यक्तित्व तुच्छ स्वार्थ से ऊपर उठ जाएगा। तभी आत्मा में सुख-शान्ति सन्तोष और श्रेय की स्थापना होती जाएगी । अतः यह धर्मसुख का मूलाधार है । त्यागवृत्ति धर्मसुख का द्वितीय आधार वास्तविक सुख भोग में नहीं, त्याग में है । 'भोगे रोग भयं' इस कहावत के अनुसार भोगों से रोगों की विशेषतः कर्मरोगों की वृद्धि होती है । पाँचों इन्द्रियविषयों के उपभोग से मनुष्य प्रायः पराधीन, इन्द्रियों का गुलाम और इष्ट-वियोग, अनिष्ट संयोग में चिन्तातुर, ईर्ष्या-द्वेष आदि का शिकार हो जाता है, इसलिए भोगों का एवं भोगासक्ति का त्याग ही सुख का कारण हो सकता है । विज्ञान विलास की सामग्री बढ़ा रहा है, और वर्तमान मानव प्रायः उसमें सुख की कल्पना करके अन्धाधुन्ध संग्रह करता है । अगर उस संग्रह में से जरूरतमंद, गरीब, पीड़ित और दुःखी के लिए निःस्वार्थ त्याग किया जाए तो उससे मन में संतोष होगा, सुख-शान्ति बढ़ेगी । धर्मसुख संग्रह में नहीं, त्यागवृत्ति में है । जिम्मेदारियों और सांसारिकता को कम करने में है । सांसारिक भोगों या सांसारिकता से जो जितना दूर हटता है, उतना ही वह सन्तुष्ट, सुखी और स्थिर बनता है । जितना ही मनुष्य अपने सिर पर परिवार - वृद्धि द्वारा जिम्मेदारियाँ, झंझट और विलास को लेता है उतना ही दुःख तथा अशान्ति बढ़ती है। त्याग ही इन जिम्मेदारियों, झंझटों और भोगों के प्रति मक्ति को कम करता है तथा सांसारिकता से मक्त करता है । अगर भोगों में ही सुख For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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