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६२ : आनन्द प्रवचन : भाग १२
होता तो बड़े-बड़े राजा, श्रेष्ठी एवं चक्रवर्ती आदि अपने सब कुछ — वैभव आदि का त्याग करके क्यों महाव्रतधारी मुनि बनते ?
कांपिल्यपुर का राजा संयंती चतुरंगिणी सेना सहित शिकार खेलने निकला । एक मृग को मारा । ' किन्तु भयभ्रान्त एवं मृत मृग मुनि गर्दभाली के पास जाकर पड़ा था । राजा भी मुनि का मृग समझकर भयभीत होकर मुनि के चरणों में पहुँचा । मुनि ध्यानस्थ थे । ध्यान खुलते ही राजा ने पश्चात्ताप करते हुए मुनि अभयदान देने की प्रार्थना की। इस पर मुनि ने उसे अभयदान देकर समझाया कि " राजन् ! तू भी अभयदाता बन । तू क्यों इस क्षणिक जीवन के लिए हिंसा आदि पापकर्म में पड़ता है ? क्यों इन्द्रिय-विषयों का उपभोग करता है ? अनित्य वैभव सामग्री किसलिए इकट्ठी करता है ? एक दिन तो सब कुछ छोड़कर अशुभकर्मवश दुर्गति में जाना पड़ेगा । अतः तेरे पास जो भी शरीर सम्पदा आदि है, उससे तपत्याग कर । उसी से सुख - शान्ति मिलेगी ।"
मुनि का धर्मोपदेश सुन संयती राजा संसार से विरक्त हो गया । अपना राज्य, वैभव, परिवार आदि सबका त्याग करके परमसुखरूप त्यागवृत्ति अंगीकार की । संयती राजर्षि विहार करते हुए एक बार किसी गाँव में पधारे। वहाँ अनिर्दिष्ट नामक कोई क्षत्रिय जातीय राजा दीक्षित होकर मुनिवेष में आए । संयती राजर्षि को संयम में स्थिर करने के लिए उसने क्रियावादी आदि के विवाद की चर्चा की । फिर उन मुनि ने उदाहरण देकर बताया- भरत, मघवा, सनत्कुमार, शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ, अरनाथ, महापद्म, हरिषेण, जय आदि चक्रवर्ती अपना राज्य, वैभव, पद, परिवार तथा समस्त उत्तम भोगसुख छोड़कर दीक्षा लेकर शाश्वत धर्मसुख सम्पन्न बने और भी दशार्णभद्र, नमिराज, दुर्मुखराज, नग्गइ राजा, उदायी राजा आदि राजाओं ने भी सर्वस्व सांसारिक भोग आदि छोड़कर पूर्ण त्यागमार्ग अपनाया और धर्मसुखसम्पन्न हुए । अत: त्यागवृत्ति भी धर्मसुख का श्रेष्ठ आधार है ।
अहंकारशून्यता : धर्मसुख का तृतीय आधार
तप,
मनुष्य भोगों का त्याग करके उच्च साधना-पथ अंगीकार करके भी अहंकारवश पद, प्रतिष्ठा, कीर्ति, प्रशंसा आदि की लालसा से पीड़ित रहता है । अगर त्याग, संयम, चारित्र, ज्ञान आदि का अहंकार रहता है तो उसके मन में रात-दिन दूसरे साधकों को नीचे गिराने, स्वयं को प्रसिद्ध करने तथा अपना सिक्का दूसरों पर जमाने की ईर्ष्यावश प्रतिस्पर्द्धा, असन्तोष, चिन्ता, व्यग्रता आदि की आग लगी रहती है । त्याग और चारित्र का सुख उसे अहंकारजनित इन प्रपंचों को छोड़े बिना नहीं मिल पाता । इसलिए अहंकारशून्यता धर्मसुख का महत्त्वपूर्ण आधार है ।
सहिष्णुता : धर्मसुख का चतुर्थ आधार
. जिसके जीवन में सहिष्णुता, धैर्य, फल की अनाकांक्षा आदि विशेषताएँ होती हैं, वही सच्चा धर्मसुख पा सकता है । जीवन में उतार-चढ़ाव आते हैं, विपरीत परि
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