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________________ धर्म ही शरण और गति है : ३२३ अन्तिम समय में धर्म का ही स्मरण रहे, ताकि कुटुम्ब, परिवार, सगे-सम्बन्धी, धन, जमीन जायदाद आदि में मोह-ममता न रहे, और एकमात्र धर्म, भगवान् और धर्मगुरु में ही लौ लगी रहे । धर्म शरणविहीन जीवन : कितना लाभकर, कितना हानिकर ? जो धर्म की शरण नहीं लेता है, मृत्यु के समय उसका ध्यान धर्म, धर्मदेव ( वीतराग प्रभु ) एवं धर्मगुरु में नहीं रहता, सांसारिक मोहमाया में उसका ध्यान लगा रहता है । एक व्यक्ति मरणशय्या पर पड़ा था । मृत्यु के द्वार पर था । उसके बचने रात होने को आई तो भी घर में दीपक नहीं जला । नहीं जलाया जाता । उसने अंधेरे में आँखें खोलीं की अब कोई आशा न थी । घर में कोई मरता हो तो दीपक और अपनी पत्नी से पूछा - " अपना बड़ा लड़का कहाँ है ?" पत्नी बोली - " आप निश्चित रहें । आपके पैर के पास ही बैठा है ।" पत्नी का हृदय प्रसन्नता से भर उठा, क्योंकि जीवन में यह पहला ही अवसर था, जबकि उसने अपने पुत्र को इतने प्रेम से बुलाया था । वह अपने पुत्रों से हमेशा प्रायः यही पूछा करता था - ' - ' तिजोरी की चाबी, या बहीखाते कहाँ रखे हैं ?' मतलब यह है कि धर्म के सम्बन्ध में उसका कोई ध्यान ही नहीं था । न तो उसने स्वयं ने धर्म की शरण ली और न ही अपने पुत्रों को धर्म की शरण दिलाई । अतः उस धनिक ने फिर पूछा - " मझला लड़का कहाँ है ?" वह भी वहीं उपस्थित था, छोटा लड़का भी उपस्थित था । चौथे लड़के के सम्बन्ध में पूछने पर वह एकदम बैठा होकर पूछने लगा - ' - "पांचवां लड़का कहाँ है ?" उसकी पत्नी ने कहा - "आप जरा भी चिन्ता न करिये । सोये रहिए । हम सब यहीं हाजिर हैं, और पाँचवाँ लड़का भी आपके पास ही बैठा है । सेठ कोहनी टेककर एकदम बोला - "यह क्या ? सब यहीं हैं तो फिर दुकान में कौन है ?" सेठ की पत्नी भ्रम में थी, उसे लगा कि पति अपने पुत्रों के प्रति प्रेमवश पूछताछ कर रहा है, परन्तु उनका ध्यान तो दुकान खुली है या बन्द इसमें था । सेठ मृत्यु की घड़ियाँ गिन रहा है, परन्तु उसका ध्यान तो व्यापार-धन्धे में था । मन सांसारिक मोहमाया में भटक रहा है । मौत सामने खड़ी हँस रही है, पर मनुष्य अभी तक भविष्य के प्लान बना रहा है । भागते हुए मन वाले व्यक्ति को अन्तिम समय में मंगलपाठ सुनाया जाए, तो उसके पल्ले क्या पड़ने वाला है ? मनुष्य धर्म की शरण ग्रहण न करके कितना घाटे में रहता है ? अमूल्य मानव-जीवन धर्मं शरण रहित बिताकर खो दिया, परलोक भी सुधार न सका । बस, बाजी हाथ से खो दी । अतः सभी धर्मशास्त्र, सभी धर्म और सभी धर्मगुरु यही सलाह देते हैं कि धर्म की शरण अवश्य स्वीकार करो। मृत्यु निकट हो, उस समय तो चार शरणों में से धर्म की Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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