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________________ ३२४ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ शरण विशेष रूप से लेना हितावह है ही, परन्तु उससे पहले जब स्वस्थ दशा में हो, तब से ही धर्म की शरण लेनी चाहिए और प्रतिक्षण जागृत रहना चाहिए । धर्म की शरण लिए बिना जो अपना जीवन व्यतीत करता है, वह किस प्रकार जीता है ? एक कवि की भाषा में देखिये बिना धर्म कोई सहारा नहीं है, गाफिल ने बिलकुल विचारा नहीं है ॥ध्र व॥ तन को, वसन को, सदन को संवारा, सही रूप को पर निखारा नहीं है ॥बिना""१॥ अड़ा शत्रुओं से, लड़ा वीरता से, अहंभाव को किन्तु मारा नहीं है ।बिना ॥२॥ मनोहर कलाएँ व विद्याएँ सीखीं, विकृत भावना को सुधारा नहीं है ।बिना "३।। वैभव बढ़ाया व विभुता बढ़ाई, सही सम्पदा को निहारा नहीं है ॥बिना ४।। कवि ने अपनी अन्तर्व्यथा धर्मशरणरहित जीवन बिताने वाले के लिए कितने मार्मिक शब्दों में व्यक्त कर दी है। सचमुच धर्मशरणविहीन जीवन असंस्कृत और अविकसित होता है। कुछ लोग, जो धर्म की शरण लेने का विरोध करते हैं, कहते हैं- "धर्म की शरण लेने और उसे मानने की क्या आवश्यकता है ? क्योंकि धर्म की शरण में जाते हैं तो हमें आत्मा-परमात्मा, लोक-परलोक, पुण्य-पाप, कर्मफल आदि मानने पड़ते हैं, धर्मशास्त्रों में जीवन पर कई प्रकार के प्रतिबन्ध बता रखे हैं-यह मत करो, वह मत करो, यह मत खाओ, यह मत पीओ आदि; हम क्यों धर्म की शरण लेकर आत्मा-परमात्मा आदि के जंजाल में पड़ें क्यों अपने पर जान-बूझकर प्रतिबन्ध लगाएँ ? धर्म की शरण लेने वाले लाभ तो यही बताते हैं कि इससे हमारे अन्दर सत्य, अहिंसा, न्याय, नीति, क्षमा, दया, तप, त्याग आदि चरित्र-सम्बन्धी सद्गुण उत्पन्न होते हैं, हम धर्म की शरण लिये बिना ही चरित्र सम्बन्धी इन गुणों को अपने में चरितार्थ करते रहेंगे।" धर्मशरण-विरोधियों का यह कथन ऊपर से सुनने में रोचक प्रतीत होता है। गहराई से विचार करने पर स्पष्ट परिलक्षित होता है कि धर्मशरण स्वीकार किये बिना तथा धर्म से सम्बद्ध आत्मा-परमात्मा, लोक-परलोक, कर्मफलसिद्धान्त आदि को माने बिना चरित्र सम्बन्धी सद्गुण टिके नहीं रह सकते। मनुष्य की नैतिकता या धर्म के अहिंसा, सत्यादि अंग, अत्मा-परमात्मा आदि के अस्तित्व तथा कर्मफलसिद्धान्त आदि पर ही तो टिके हुए हैं; अन्यथा धर्मशरणविहीन व्यक्ति रोग, व्यथा, संकट और कष्ट के समय चरित्रगुणों पर स्थिर नहीं रह सकेगा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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