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________________ धर्म ही शरण और गति है : ३२५ जब यह मान्यता हो जाएगी कि आत्मा नाम की कोई सत्ता नहीं है, वह तो सिर्फ पंचभूतों— जड़ पदार्थों का संयोग है, जो यहीं - इसी जन्म में खत्म हो जाता है, आगे उसके पुण्य-पाप का कोई लेखा-जोखा नहीं है, तब वह मनुष्य क्यों धर्म के इन स्वपर-कल्याणकारी गुणों को अपनाएगा ? जब सारा खेल यहीं - इसी जन्म में समाप्त हो जाएगा, तो मनुष्य में बुरे कर्मों से बचने की प्रवृत्ति नहीं होगी, फिर तो यही विचार होगा कि जो कुछ ( विषय ) - सुख भोगना हो, भोग लो । जैसे भी हो इसी जीवन को भौतिक सुखों से भर लो । इस वृत्ति प्रवृत्ति के वश होकर मनुष्य अपने जीवन को अपने मनःकल्पित सुख से परिपूर्ण बनाने के लिए किसी को सताने, मारने, पीड़ित करने से नहीं चूकेगा, झूठ - फरेब, दम्भ, छल-कपट, धोखाधड़ी, अन्याय, अनीति और अत्याचार का सहारा लेने में नहीं हिचकिचाएगा, क्योंकि उसे तो इसी जन्म को सुखी बनाना है । जब धर्मशरणविहीन व्यक्ति का लक्ष्य आत्मा-परमात्मा की सत्ता, पुनर्जन्म, कर्मफल आदि सिद्धान्तों को न मानकर केवल अपने वर्तमान जीवन को सुखी बनाना रह जाएगा तो वह क्यों किसी दीन-दुःखी पर दया करेगा ? क्यों माता-पिता की सेवा करेगा ? और माँ-बाप भी क्यों अपनी संतान का पालन-पोषण करेंगे ? क्यों वह सामाजिक, पारिवारिक, वैवाहिक, आर्थिक, धार्मिक आदि क्षेत्रों की धर्ममर्यादाओं को मानेगा ? वह उच्छृंखल होकर कल्पित सुख की अंधी दौड़ में क्यों दूसरों के दुःख को दूर करने, सेवा करने, परोपकार करने और अपने जीवन में उत्तम सद्गुणों का विकास करने का प्रयत्न करेगा आत्मा-परमात्मा आदि को न मानने की अवस्था में अच्छा या बुरे व्यक्ति का या अच्छे बुरे कर्म का निर्णय कैसे किया जाएगा ? नास्तिक लोगों के द्वारा कल्पित पंच भौतिक जड़-आत्मा अच्छाई-बुराई का निर्णय कैसे कर सकेगी ? सभी कर्म एक जैसे मानने पर दुराचरण या सदाचरण, अनैतिक कार्य या नैतिक कार्य का कोई विवेक नहीं हो सकेगा । 'सबधान बाइस पंसेरी' वाली कहावत चरितार्थ हो जाएगी । इस प्रकार धर्मशरण के अभाव में मनुष्य का जीवन भी दैत्यों का-सा बन जाएगा और संसार नरक-तुल्य बन जाएगा । संसार में अराजकता छा जाएगी । ये और इस प्रकार के कई भयंकर दोष धर्मशरण न लेने से आते हैं, भौतिकवादी नास्तिकों के पास इन प्रश्नों का कोई यथार्थ समाधान नहीं है । धर्मशरणविहीन लोग संकट और कष्ट के समय धर्मध्यान के अभाव में आर्तध्यान करेंगे, वे या तो विलाप, रुदन या शोक, पश्चात्ताप करेंगे या फिर निमित्तों को कोसकर दूसरों को मारने-पीटने, सताने, ठगने, चोरी-डकैती करने, झूठ - फरेब करने, धनादि छीनने का उपक्रम करें रौद्रध्यान करेंगे । इस प्रकार अपने अमूल्य जीवन की कब्र अपने हाथों से खोंदेंगे । धर्मशरण में कितनी दृढ़ता, कितनी श्रद्धा हो ? कहा जा सकता है, धर्मशरण के बिना काम नहीं चलता और उसे ग्रहण करना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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