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________________ ३०२ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ तो लक्ष्मी भाग जाएगी और यदि मैं लक्ष्मी की रक्षा करता हूँ तो वचन भंग होगा, मैं धर्म भ्रष्ट और कलंकित होऊँगा ।' अन्त में धन और धर्म दोनों की रक्षा की उलझन में, राजा इस निर्णय पर पहुँचा कि मुझे अपने धर्म की रक्षा करनी है, चाहे लक्ष्मी चली जाए । राजा ने व्यापारी को राज- कोष से सवा लाख रुपये दिला दिये और उस पुतले को राजकोष में रखवा दिया । रात्रि को जब राजा विचारलीन होकर विस्तर पर लेटा था, तभी लक्ष्मी ने वहाँ आकर पूछा - "राजन ! सोते हैं जागते ?” राजा - " जागता हूँ । कहिए क्या आज्ञा है ?" " लक्ष्मी बोली - "मैं तुम्हारी राजलक्ष्मी हूँ । अब मैं तुम्हें छोड़कर जा रही हूँ । क्योंकि तुमने मेरे शत्रु - दरिद्रता के पुतले को स्थान दिया है । " इतना कहकर लक्ष्मी चली गई । राजा धैर्यपूर्वक उसी विस्तर पर लेटा रहा । उसने दृढ़ निश्चय किया- 'प्रजा का हित करना मेरा धर्म है और धर्म की रक्षा के लिए सर्वस्व भी न्यौछावर हो जाए तो कोई चिन्ता नहीं ।' पिछली रात तक इधर-उधर घूमकर लक्ष्मी पुनः राजा के पास आई और कहने लगी- "राजन ! मैं तुम्हारे आश्रय में रहना चाहती हूँ। मैंने देखा कि लोग सत्यहीन, धर्महीन एवं नीतिहीन हो रहे हैं । मैं तुम्हारी प्रजावत्सलता और धर्मनिष्ठा से अत्यन्त प्रसन्न हूँ ।" वास्तव में, राजा विक्रमादित्य ने सब कुछ जाते देखकर भी धर्मरक्षा की । उसी धर्मरक्षा के प्रभाव से लक्ष्मी पुनः आ गई । इसलिए चन्दन दोहावली में कहा हैधर्म सिवा रक्षक नहीं, अखिल विश्व में और । अतः धर्म अपनाइए, 'चन्दन मुनि' हर ठौर ॥ इसी प्रकार किसी व्यक्ति या वर्ग पर संकट आने पर धर्म किसी घटक के द्वारा रक्षा करता है । जब भी किसी प्रान्त या देश पर संकट आ पड़ता है, लोग भूकम्प या बाढ़ से पीड़ित हो जाते हैं, तब भारत के कोने-कोने से लोग उनकी मदद के लिए सहायता भेजते हैं, अपना धर्म समझकर । धर्म - धारणा भी रक्षण के अर्थ में धूञ धातु धारण करने अर्थ में है, इसी से धर्म शब्द बना है, जिसका अर्थ हुआ है, धारण करना, पुष्ट करना बनाये रखना । इसीलिए महाभारत में कहा है धारणाद्धर्ममित्याहु धर्मो धारयते प्रजा । यतेस्याद्धारणसंयुक्तः स धर्म इति निश्चयः ॥ "धारणा ( मर्यादा) करने वाला होने से इसे धर्म कहा गया । क्योंकि यह प्रजा को धारण करता है, उसे पुष्ट करता है, समर्थ बनाता है । जो धारण करने में समर्थ है, वही धर्म है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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