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________________ धर्म : जीवन का व्राता : ३०३ धर्म की धारणाएँ विभिन्न कोटि की मर्यादाएँ हैं । गृहस्थ और साधु की, तथा वानप्रस्थ एवं ब्रह्मचारी की अलग-अलग धारणाएं हैं। शास्त्रों में मार्गानुसारी, गृहस्थ श्रमणोपासक एवं महाव्रती साधु-मुनि की अलग-अलग धर्म - मर्यादाएँ ( धारणाएँ) हैं । धर्म की धारणा में वे सब अनुष्ठान या विधि-विधान हैं, जो मनुष्य को अपने-अपने वर्ग ( नीतिमान गृहस्थ, श्रावक आदर्श गृहस्थ, साधु-संन्यासी आदि) की भूमिका में मनुष्य के जीवन को गढ़ती हैं, जीवन-निर्माण करती हैं । इस प्रकार की धर्मव्यवस्था से धर्म मानव-जीवन को सभी तरह से समुन्नत एवं प्रकाशमान बनाता है । इसी प्रकार अपने-अपने क्षेत्र में अलग-अलग कर्त्तव्यों का विधान भी धर्म - धारणाएँ हैं, जिनके अनुसार चलने से जीवन का आन्तरिक एवं बाह्य सभी प्रकार से रक्षण एवं विकास होता है । धर्म-धारणा के अनुसार चलने से मनुष्य के व्यावहारिक जीवन में काम एवं मोक्ष पुरुषार्थ भी धर्म के नियन्त्रण ( धर्ममर्यादा) में सधते हैं । इसलिए कहा जा सकता है कि धर्म- जीवन विकास की सर्वांगीण साधना है । ऐसी साधना करने वाले व्यक्ति के जीवन को धर्मपतन से, भ्रष्ट होने से और अश्रद्धालु होने से बचाता है । यही धर्म के द्वारा रक्षणीयता है । धर्म की रक्षात्मकता - जब दूसरी दृष्टि से देखें तो भी धर्म की सार्वभौम रक्षात्मकता सिद्ध होती हैमनुष्य अहिंसादि व्रतों तथा नियमों को जिनमें सार्वभौमिकता को उदार भावना सन्निहित है, आत्मौपम्य की पवित्र वृत्ति के आधार पर अपने जीवन को ढालता है, किसी भी स्वार्थ, प्रलोभन या भय के कारण इनका उल्लंघन नहीं करता, सर्वहित की सामूहिक भावना का अतिक्रमण नहीं करता और न ही शारीरिक भेद या जाति-पाँति या वर्ग वर्ग के भेद के आधार पर मनुष्य- मनुष्य में भेदभाव करता है, सबके साथ समानता का व्यवहार करता है, तब स्वाभाविक है कि वह धर्म की मर्यादाओं का दृढ़ता से पालन करता है, और ऐसा करने वाले व्यक्ति के जीवन की सार्वभौमिक सुरक्षा धर्म के द्वारा स्वतः हो जाती है । अतः यह कहा जा सकता है कि किसी भी अवस्था में, सभी वर्ग के धम-पालकों की रक्षा धर्म ही करता है । मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम जब वन में जाने के लिए प्रस्थान करने लगे, तब जीवन की सर्वांगीण रक्षा की दृष्टि से उन्होंने माता कौशल्या से आशीर्वाद माँगा | विदुषी एवं बुद्धिमती माता कौशल्या ने कहा यं पालयसि धर्म त्वं प्रीत्या च नियमेन च । सवै राघवशार्दूल! धर्मस्त्वामभिरक्षतु ।' "हे राम ! तुमने जिस धर्म का प्रीतिपूर्वक ( श्रद्धा से ) और नियम- मर्यादापूर्वक १. वाल्मीकि रामायण | Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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