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________________ १४४ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ क्षत्रियों का धर्म : दुर्बलों का प्राणघात नहीं भारत के क्षत्रिय लोग प्रायः शिकार के शौकीन हैं। वे कहते हैं- "हम अपनी शक्ति बढ़ाने, अपना पौरुष दिखाने और मनोरंजन करने हेतु शिकार करते हैं।" परन्तु क्षत्रियों का धर्म निर्दोष, निर्बल और निरपराध को सताना नहीं है, बल्कि निर्बलों की रक्षा करना और गन्हें न्याय दिलाना है। अमृत काव्य संग्रह में इस विषय में सुन्दर मार्गदर्शन दिया हैपीठ देइ भागत रहत मुख दीन सदा, दांत तृण लेत कभी होत ना गरम है। डोले निराधार इत-उत, छिपि राखै प्राण, गरीब अजाण सिर संकट परम है। ऐसे वनचारिन पै गजब गुजारिबो सु, कहे अभीरिख यह निन्दित करम है । मृतक-समान वन फिरत अनाथ सदा, दीन पशु मारिवो न क्षत्री को धरम है । मृगया की कीड़ा के बहाने निर्दोष प्राणियों के प्राण लूट ना क्षत्रियों का धर्म है, यह कोई भी धर्मशास्त्र नहीं कहता। बल्कि क्षत्रिय शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की मिलती है क्षतात् त्रायते रक्षतीति क्षत्रियः क्षत, दुर्बल और पीड़ित का जो रक्षण करता है, त्राण करता है, वह क्षत्रिय है। जैनधर्म के अनुयायी जितने भी क्षत्रिय राजा हुए सबने इसी नीति का अनुसरण किया है । यही नहीं जैन श्रावक भी जिन क्षत्रिय राजाओं के मंत्री, दीवान या प्रधान आदि किसी पद पर रहे हैं, उन्होंने भी क्षत्रिय राजाओं को उत्पथ पर जाते देख निर्भयतापूर्वक सन्मार्ग की प्रेरणा दी है। महाकवि धनपाल राजा भोज के बरबार में थे। वे जैन श्रावक थे। शान्त स्वभावी एवं दयालु प्रकृति के कवि थे। एक दिन राजा भोज उन्हें आग्रहपूर्वक अपने साथ आखेट क्रीड़ा देखने हेतु ले गये। जंगल में पहुँचकर राजा ने एक भागते हुए हिरण को बाण से बींध दिया। बेचारा मृग मरणान्तक पीड़ा से छटपटाने लगा। इसे देखकर दूसरे कवियों ने राजा की प्रशंसा में काव्य पढ़े । मगर धनपाल कवि चुप रहे । आश्चर्यपूर्वक राजा ने धनपाल की ओर देखा तो उन्होंने राजा को बोध देने की दृष्टि से निर्भयतापूर्वक तत्काल एक श्लोक पढ़ा रसातलं यातु तदत्र पौरुषम्, कुनीतिरेखा शरणोत्यदोषान् । निहन्यते यद् बलिनाऽति दुर्बलो, हाहाकष्टम राजकः जगत् ॥ -- वह पौरुष रसातल में चला जाए, यह कुनीति है कि निर्दोष प्राणियों को मौत के घाट उतारा जाए। बलवान के द्वारा अति दुर्बल को मारा जाना, यही तो कष्ट है, यही तो जगत् में अराजकता है। इन्हें कोई कुछ कहने वाला नहीं। राजा अपने कार्य की भर्त्सना सुनकर अपमान महसूस करते हुए उदासीनता के स्वर में बोला-"महाकवि ! यह क्या उलटी गंगा बहा रहे हो ?" धनपाल कवि ने नैतिक साहस बटोरकर कहा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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