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हिंसा में आसक्ति से धर्मनाश : १४५
वैरिणोऽपि हि मुच्यन्ते प्राणान्ते तृणभक्षणात् ।
तृणाहाराः सदैवेते, हन्यन्ते पशवः कथम् ? "शत्रु भी प्राणान्त के समय अगर मुंह में तिनका दबाकर आ जाते हैं, तो उन्हें जीवित छोड़ दिया जाता है, ये पशु तो सदैव तृणाहारी है, मुंह में हमेशा ही तिनका लिये रहते हैं। फिर इन पशुओं को क्यों मारा जाता है ? कुछ समझ में नहीं आता।"
ठीक समय पर धनपाल कवि की निःस्वार्थ भाव से की गई करारी चोट से राजा भोज का हृदय हिल उठा। उनके मन में दयाभाव जागा और सदा के लिए आखेट-क्रीड़ा का त्याग कर दिया ।
शिकारी जीवन में सुख कहाँ ? लोग कहते हैं शिकार से मनोरंजन होता है, परन्तु शिकार से कितना आनन्द मिलता है, यह तो किसी शिकारी से पूछिए, शिकार से क्या-क्या दुःख और क्लेश पाना पड़ता है, इसका ब्यौरा 'कामन्दकीयनीतिसार' में पढ़िये ।
शिकार को पाने और उसका पीछा करने में शिकारी को बहुत ही परेशानी उठानी पड़ती है । ऊबड़-खाबड़ एवं पथरीले संकीर्ण रास्ते पर घोड़ा या रथ दौड़ाने में वह क्षुब्ध हो जाता है। कई बार जरा-सा चूक जाने पर गहरे गड्ढे या खाई में गिरने का खतरा रहता है । कभी थकान, भूख प्यास, सर्दी-गर्मी, ठंडी-बर्फीली हवाएँ आदि सहन करनी पड़ती हैं। कहीं उत्पथ से जाने में काँटे, साँप की बांबी, किसी हिंस्र जानवर से मुकाबला आदि भयंकर खतरे हैं। कभी जंगल के आदिवासी शिकारी को देखकर उसे रस्सियों से बाँधकर मारने-पीटने लगते हैं; कभी अजगर भालू, चीता, शेर, भेड़िया आदि उसे देखते ही हमला कर बैठते हैं। इस प्रकार शिकारी के सामने अनेक बार प्राणों का संकट उपस्थित हो जाता है। जंगल के अटपटे विकट रास्तों में चलते-चलते कई बार दिशाभ्रम हो जाने से वह रास्ता भूल जाता है, तब तो लेने के देने पड़ जाते हैं। पर-प्राणघातक शिकार बहुधा स्व-प्राणघातक बन जाता है । आनन्द तो दूर रहा, शिकारी आर्तध्यान के चक्कर में पड़कर कष्ट ही कष्ट भोगता है।
शिकार छोड़कर अगर वह प्राणियों की रक्षा और भलाई करने में अपना जीवन लगाता और इतना कष्ट उठाता तो कर्मों की निर्जरा होती, भगवान की तरह पूजा जाता, एवं महान् आत्मा बन जाता। परन्तु क्षणिक मनोरंजन के भ्रम से प्राणियों का वध करके अनेक कष्ट भी उठाता है, जिनका प्रतिफल पापकर्मबन्ध और नरक के सिवाय और कुछ नहीं आता। शिकार के दुर्व्यसन से वह शैतान और राक्षस बन जाता है।
... शिकार भी एक ही प्रकार का नहीं शिकार भी केवल एक ही प्रकार का नहीं होता। प्राचीनकाल में शिकार को 'मृगया' कहा जाता था, इसीलिए कि शिकारी मृग (हिरन) के पीछे दौड़ता
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