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१४६ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ था-अभियान करता था। परन्तु बाद में कुछ राजा लोग सिंह, चीता आदि हिंस्र पशुओं का शिकार करने लगे, उसे 'आखेट' कहा जाता था। इसमें चारों ओर घूमघूमकर सारा जंगल छान लिया जाता था। हिंस्र पशुओं के शिकार के लिए मचान बाँधा जाता या ऊँची जगह से निशाना ताका जाता था।
कई मांसाहारी क्रूर मानव निर्दोष पक्षियों और कबूतरों, चिड़ियों, बतखों आदि का शिकार करते हैं। अधिकतर पश्चिम के शिकारियों का प्रभाव भारत के लोगों पर भी पड़ा।
__ कई लोग जल में स्वच्छन्द विचरण करने वाले मछली आदि निर्दोष जलचर प्राणियों का शिकार करते हैं। किसी तालाब या नदी के एक हिस्से को लक्ष्य बनाकर ये लोग पानी में कल्लोल करते हुए निर्दोष-निरपराध जलचरों को मार डालते हैं। पश्चिम के शिकार-विशेषज्ञों का चेप भारत के कुछ शौकीनों को लगा, और वे भी इस प्रकार का जलचरों का शिकार करने लगे। . भालनलकांठा प्रदेश (अहमदाबाद जिला) के नलसरोवर में मछलियों का शिकार करने के लिए सहसा प्रान्तीय गवर्नर और उसकी पार्टी आ पहुँची थी। यह घटना स्वराज्य-प्राप्ति से पूर्व की है। नलकांठा प्रदेश में उन वर्षों में मुनि संतबालजी धर्ममय समाज रचना के प्रयोग की नींव डाल रहे थे। उन्होंने उस प्रदेश के कोली पटेलों को शराब, मांस, शिकार आदि का त्याग कराकर धर्म-संस्कार दिये थे। ज्योंही शिकारी पार्टी नलकांठा सरोवर के समीपवर्ती गाँव में पहुँची। वहाँ के निवासी कोली पटेल आश्चर्यचकित रह गये। शिकारी पार्टी ने कोली लोगों को मछलियों के शिकार में सहयोग देने के लिए कहा, गवर्नर के हुक्म की धमकी भी दी, परन्तु उन्होंने साफ इन्कार कर दिया कि हम इस हिंसा-कार्य में आपका साथ नहीं देंगे। आखिरकार गवर्नर तथा उसकी पार्टी के लोग ही सरोवर पर पहुँचे और बंदूक चलाने लगे, लेकिन यह क्या ? उनकी बन्दूक कुछ काम ही नहीं करती, केवल सूसू की आवाज करके रह जाती । हार-थककर गवर्नर और उनकी पार्टी के लोग निराश होकर वापस लौट गये । किन्तु गवर्नर की शिकारी पार्टी इस दौरे से पहले अन्यत्र मछलियों के शिकार में सफलता प्राप्त कर चुकी थी।
हाँ तो, इस प्रकार शिकार के कई रूप हैं । चाहे किसी भी रूप में शिकार हो, वह हिंसा है, अधर्म है, पाप है और भयंकर पापकर्मबन्धक है । हिंसा : मुर्गों, सांडों, मानवों आदि को लड़ाकर हत्या कराने के रूप में
प्राचीनकाल में भारतवर्ष में मुर्गों, सांडों आदि को लड़ाकर उन्हें मरवाने, घायल करा देने के मनोरंजक खेल होते थे। इनमें दर्शकों का सिर्फ मनोरंजन होता था, पशुओं के प्राण चले जाते या वे लहूलुहान होकर गिर पड़ते। यह भयंकर एवं निरर्थक हिंसा का प्रकार था।
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