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________________ हिंसा में आसक्ति स धर्मनाश : १४७ यूरोप में भी उन दिनों इस प्रकार के हिंसात्मक खेल चलते थे, जिनमें बेरहमी से मुर्गों, सांडों, कुत्तों, बिल्लियों और बन्दरों को उकसा-उकसाकर दर्शक लोग लड़ाते थे । जब तक दोनों मुर्गे खून से लथपथ होकर गिर नहीं जाते थे, और खत्म नहीं हो जाते थे, तब तक यह खेल चलता था। बीच-बीच में दर्शक लोग उन्हें लाठियों से उकसाते रहते थे । कुत्तों और बिल्लियों की या कुत्तों और बन्दरों की आपस में भयंकर लड़ाई कराई जाती थी, और यह तब तक चलती थी, जब तक कि प्रतिपक्षी अपने प्रतिपक्षी के टुकड़े-टुकड़े नहीं कर देता था। इससे भी भयंकर हिंसा का एक और रूप प्रचलित था रोम में। भूखे शेर या शराब पिलाये हुए हाथी के साथ खरीदे हुए गुलाम या युद्धबन्दी को तलवार देकर लड़ने के लिए मैदान (Arena) में उतारा जाता था । शेर या हाथी उस मनुष्य से लड़ते-लड़ते उसे लहुलुहान कर देते और मर जाता तो उसकी लाश घसीटकर एक ओर फेंक दी जाती । दर्शकों में क्रूरता उभरती, वे जोर-जोर से तालियाँ पीटते । फिर दूसरे आदमी को भेजा जाता और इसी प्रकार एक ही दिन में लगातार कई पशुओं और मनुष्यों का द्वन्द्वयुद्ध कराया जाता था। यह हिंसा बहुत ही क्रूरता की प्रतीक थी। . ईसा से लगभग २०० वर्ष पूर्व रोमन साम्राज्य में यह कर प्रथा प्रारम्भ हुई थी, और लगभग ७०० वर्ष तक चली। मृतपुरुषों के प्रीत्यर्थ, पुत्रजन्म की खुशी, या अन्य किसी उत्सव, त्यौहार के अवसर पर अथवा नये मंत्रिमण्डल के बनने पर या व्यापारी द्वारा विज्ञापन करने हेतु इस प्रकार के कर हिंसाजनक द्वन्द्वयुद्धों का आयोजन किया जाता था । दर्शकों एवं आयोजकों में इतनी क्रूरता आ जाती थी कि वे द्वन्द्वयुद्ध में हारे हुए अथवा अधमरे को ईट, पत्थर मार-मार कर समाप्त कर देते थे। जब वे मनुष्यों को भी परस्पर द्वन्द्वयुद्ध में छटपटाते या तलवार से कटते देखते तो हर्ष व्यक्त करते थे। इस प्रकार के मल्लयुद्ध तलवारों से भी होते थे। कितना भयंकर क्रूर दृश्य होता था वह ! टेलीमेक्स नामक ईसाई सन्त ने अपना बलिदान देकर इस क्रूर प्रथा का अन्त कराया था। हिंसा : विविध शृगारिक उपकरणों आदि के रूप में विदेशों में विविध प्रकार के शृंगारिक उपकरणों के लिए, फैशन के लिए, विलासिता के लिए अथवा किसी भी अन्य प्रयोजन के लिए पशु-पक्षियों की हत्याभयंकर हिंसा की जाती है। विभिन्न प्रकार के शृंगार प्रसाधन बनाने के लिए आये दिन लाखों-करोड़ों प्राणियों को बलिवेदी पर चढ़ना पड़ता है। हाथी दांत के लिए हाथियों को, मृगमद (कस्तूरी) के लिए कस्तूरी मृग की, रोएँदार खाल के लिए खरगोश आदि की, रेशमी वस्त्रों के लिए शहतूत के कीड़ों की, तेल और चर्बी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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