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________________ यौवन में इन्द्रियनिग्रह दुष्कर : २५३ विसंगत आचरणों या अटपटी असम्बद्ध प्रवृत्तियों को देखकर ही प्राय: वे धर्मगुरुओं के पास जाने से हिचकिचाते हैं अथवा धर्म-सम्प्रदायों का जनूनी इतिहास पढ़कर वे धर्मगुरुओं के पास जाना ही नहीं चाहते। जब भी कभी अभिभावकों के साथ जाते हैं तो बेरुखे, बेमन से, बिना दिलचस्पी के जाते हैं, वहाँ चुपचाप बैठकर आ जाते हैं, अथवा धर्मगुरु भी उनकी प्रकृति को जाने बिना सहसा कोई बात कहने में झिझकते हैं। कई धर्मगुरु तो अपनी साम्प्रदायिक या सम्प्रदाय रक्षा की प्रवृत्तियों में उलझे रहते हैं। उन्हें युवावर्ग को शुद्ध धर्म की ओर मोड़ने का अवकाश ही कहाँ मिलता है ? अगर कभी मोड़ते हैं तो भी साम्प्रदायिक क्रिया-काण्डों या सम्प्रदाय-पोषक विचारों की ओर हो। इससे युवकों को धर्मगुरुओं की ओर से यथार्थ मार्गदर्शन नहीं मिल पाता और उनकी कर्तृत्वशक्ति कुण्ठित या विद्रोही हो जाती है, अथवा गलत मार्ग पर भी चली जाती है । एक दुःखद ऐतिहासिक उदाहरण लीजिए लाला लाजपतराय का नाम आपने सुना होगा ? वे राष्ट्र के प्रसिद्ध नेताओं में से एक थे। उनका सारा परिवार जैनधर्म का अनुयायी था। जैनधर्म के सिद्धान्तों को मानता था । लाजपतरायजी जिस समय जवान थे, लाहौर के प्रसिद्ध कॉलेज से बी. ए. पास करके वे अपने घर आए। उनके अभिभावकों ने उनसे कहा --"चलो, महाराजश्री के दर्शन करने ।" यद्यपि डी. ए. वी. कॉलेज में पढ़ने से आर्य समाज के कुछ-कुछ संस्कार उनमें प्रविष्ट हो ही गए थे, किन्तु अगर उनके अभिभावक ध्यान देते तो उन्हें जैनधर्म के उच्च सिद्धान्तों से अवश्य ही परिचित कर सकते थे। परन्तु वे तो ऐसा न करके धर्मगुरुओं से सीधी ही प्रेरणा उन्हें दिलाना चाहते थे। युवक लाजपतराय अनमने-से होकर उग समय लाहौर में विराजित एक बुजुर्ग जैन साधु के पास आए । उनका प्रवचन सुना। प्रवचन के बाद जब वे बन्दना करने गये तो और लोगों को हरी माग-सब्जी का त्याग दिलाने की तरह उनसे भी कहने लगे---"लाजपत राय ! तुम भी अमुक दिन हरी साग-सब्जी खाने का त्याग ले लो।" युवक लाजपतराय पर इस बात का उलटा प्रभाव पड़ा कि इन्होंने आते ही मुझसे अन्य बातों को विषय में पूछा तक नहीं, नैतिक जीवन बनाने के सम्बन्ध में एक शब्द भी नहीं कहा, जुआ, चोरी, मांस, मद्य आदि के त्याग के विषय में समझाया तक भी नहीं और एकदम लिलोती (हरी साग-सब्जी) के त्याग पर अड़ गए, भला हरी साग-सब्जी क्या जीवन का इतना नुकसान करती है, जितना कि कुव्यसनों या बेईमानी, ठगी, या अन्याय अत्याचार से युक्त अनैतिक जीवन हानि करता है ? अत: जब बुजुर्ग सन्त दुबारा-तिबारा उसी हरी-सब्जी के त्याग पर जोर देकर कहने लगे तो उनसे न रहा गया । वे बोले-"पहले मुझे समझाइए कि मैं हरी साग-सब्जी का त्याग क्यों कर लू? आपने पहले मेरे नैतिक जीवन के बारे में पूछा तक नहीं और एकदम हरी सब्जी का त्याग करने के लिए बाध्य करने लगे।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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