SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 281
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५४ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ कहते हैं, इस पर साधुजी भी जरा गर्म हो गए और कहने लगे-“पढ़-लिखकर केवल तर्क करना सीख गए हो, हमारी बात पर श्रद्धा रखकर बिल्कुल चलते नहीं। हरी सब्जी के त्याग करने से बहुत लाभ हैं तभी तो हम तुम्हें त्याग करने को कह इस पर युवक लाजपतराय ने कहा- "नहीं, महाराजश्री ! ऐसे एकदम मैं हरी साग-सब्जी का त्याग नहीं करता !" सन्त अपने आग्रह पर अड़े रहे । अन्ततः युवक लाजपतराय वन्दना करके चले गये, पर उन्हें जैन साधुओं के प्रति घृणा हो गई । वे उस दिन के बाद जैन साधुओं के पास न आए, आर्यसमाजी बन गए। यह है–युवकों को सही मार्गदर्शन न देने का दुष्परिणाम ! अगर युवक लाजपतराय को ठीक मार्गदर्शन मिलता तो उनके द्वारा धर्म की सेवा भी होती और अनेक युवक भी उनके साथ-साथ क्रमबद्ध धर्माचरण को तैयार हो जाते। - बहुधा देखा जाता है कि युवक विद्रोही हो जाते हैं। उनकी यह विद्रोह भावना परिवार एवं धर्म के प्रति उभरती है। युवक चाहता है कि जो ढर्रे से चला आ रहा है उसमें कुछ परिवर्तन एवं संशोधन हो । बुजुर्ग उसमें जरा-भी परिवर्तन नहीं करने देना चाहते; बल्कि आधुनिकता के नाम पर जो भी नया आ रहा है, उसे वे विकृत, समाजविरोधी, धर्मविरोधी कहकर ठुकरा देते हैं। इस प्रकार प्राचीन-नवीन का संघर्ष, व्यामोह और भावुकता का यह द्वन्द्व पुरानी और नई पीढ़ी के बीच टकराव का कारण बन जाता है जो विद्रोह के रूप में फूट निकलता है । अतः युवकों की सक्रियता को समाप्त करने की जरूरत नहीं है, सर्वप्रथम जरूरत है, सक्रियता में आई हुई वास्तविक सदोषता को परखकर निर्दोष करने की। युवावर्ग की इन्द्रिय-शक्ति को रोकने की अपेक्षा, उसे व्यवस्थित रूप दे दिया जाए तो वह शक्ति निर्दोष एवं समाज के लिए विध्वंसात्मक न होकर सर्जनात्मक सिद्ध हो सकती है । जैसे नदी में स्वच्छन्दता से बहने वाले पानी की अपेक्षा नहर के रूप में व्यवस्थित हुआ पानी खेती के लिए विशेष लाभदायक सिद्ध होता है, वैसे ही युवकों की इन्द्रिय-शक्ति को यों ही बहने न देकर यदि सही मार्गदर्शन देकर सुयोजित ढंग से मोड़ी जाए तो उनकी वह सक्रियता स्वहित, परिवारहित, समाजहित, राष्ट्रहित एवं धार्मिकहित के लिए विशेष उपयोगी सिद्ध हो सकती है। इस प्रकार युवकों के साथ आत्मीयतापूर्वक व्यवहार किया जाए तो मार्गदर्शन और इन्द्रिय-शक्ति का सक्रियता के दुरुपयोग से रक्षण दोनों का मेल हो सकता है। अपेक्षित है-अभिभावकों, समाज के अग्रगण्यों तथा धर्मगुरुओं द्वारा यथार्थ मार्गदर्शन और युवकों द्वारा विनयपूर्वक अपनी इन्द्रियशक्ति का अर्पण ! अनुभव और इन्द्रिय-शक्ति का समन्वय अपेक्षित युवकों में फलती हुई विद्रोही भावना को, जिसके कारण उनकी इन्द्रिय-शक्ति ध्वंसात्मक कार्यों में लग जाती है, रोकने के लिए उन्हें दायित्व सौंपा जाए और जहाँ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy