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________________ यौवन में इन्द्रियनिग्रह दुष्कर : २५५ गलती हो, उसे प्रेम से सुधारा जाए, उन पर अविश्वास न किया जाए। प्राचीन काल में अनेक व्यक्ति अपनी ढलती अवस्था के प्रारम्भ में ज्येष्ठ पुत्र को गृहदायित्व सौंपकर व्यवसाय एवं घर के अन्य कार्यों से निवृत्त हो जाते थे, सिर्फ अध्यात्म जागरण में लगते थे। कई अवकाश प्राप्त व्यक्ति अपना शेष समय धार्मिक अनुचिन्तन तथा सामाजिक सेवा की प्रवृत्तियों में व्यतीत करते थे । उपासक दशांग सूत्र में आनन्द, कामदेव आदि श्रमणोपासकों के जीवन का संक्षेप में उल्लेख है, उन्होंने अपनी ढलती अवस्था में विशिष्ट अध्यात्म साधना का जीवन बिताने हेतु अपने ज्येष्ठ पुत्र को दायित्व सौंप दिया था । उसके प्रशिक्षण की उस समय कई विधियाँ हुआ करती थीं, उनमें उत्तीर्ण होने के बाद पारिवारिकों की उपस्थिति में उसे गृहभार सौंप दिया जाता था । निवृत्त गृहप्रमुख तटस्थ पर्यवेक्षक तथा परामर्शक के रूप में रहता था । इससे इन्द्रिय-शक्ति के विकास के लिए दायित्व और अनुभवयुक्त तटस्थ मार्गदर्शन दोनों का समन्वय हो जाता था । दायित्व सौंपने से युवक स्वतन्त्र रूप से अपनी इन्द्रिय-शक्तियों का उपयोग करके स्वनिर्माण कर पाता था, साथ ही गृहप्रमुख के मार्गदर्शन से उसमें कोई दोष प्रविष्ट होता तो निकल जाता था । वर्तमान में सर्वथा विपरीत स्थिति है । प्राय: अभिभावकों का विश्वास युवकों पर टिक नहीं पाता । वे अपना दायित्व छोड़ने और युवकों पर कर्तव्यभार डालने के लिए प्रायः तैयार नहीं होते । चाहे व्यावसायिक प्रतिष्ठान हो, चाहे सार्वजनिक संस्था, चाहे वह धार्मिक संस्था हो, वृद्धों का मन युवकों को कार्यभार सौंपने के लिए उदार नहीं होता । वे कहते हैं- युवावर्ग में कर्तृत्व और अनुभवों का अभाव है, उन्हें जो कार्यं सौंपा जाएगा, वे उसे रसातल पहुँचा देंगे । उन्हें कुछ करना धरना नहीं आता । केवल बातें बनाने में वे कुशल होते हैं । बातों से कोई संस्था या व्यवसाय प्रतिष्ठान नहीं चला करते | युवकों का यह तर्क है कि हमें कार्य करने का अवकाश नहीं दिया जाता, बाँधकर रखा जाता है । बन्धन में हमारी कर्तृत्व शक्ति का विकास कैसे हो सकता है ? प्रेमपूर्वक हमें उचित मार्गदर्शन, अनुभव एवं हार्दिक आशीर्वाद दिया जाए तो हम अपनी इन्द्रियों की क्षमता और कर्तृत्वशक्ति का विकास कर सकते हैं । में वास्तविकता यह है कि बुजुर्गों के पास अनुभव होता है और युवकों में होता है - शक्ति का अद्भुत स्रोत । दोनों का सन्तुलित समन्वय हो तो युवकों की इन्द्रियविषयक कर्तृत्व क्षमता विकसित हो सकती है । अवस्थाभेद के कारण उत्पन्न होने वाले मतभेदों को वात्सल्य और विनय के द्वारा समाहित किया जाए तो परिवार, समाज और राष्ट्र का बड़ा हित संध सकता है । असन्तोष : कारण और निवारण युवकों और वृद्धों, दोनों की ओर से असन्तोष पल रहा है। युवकों को वर्तमान धर्म, संस्कृति, आहार-विहार, रहन-सहन, रीति-रिवाज, सभ्यता, वेशभूषा तथा संकीर्णता के प्रति प्रायः असन्तोष होता है । उनके असंतोष का पहला निशाना प्राचीन परम्पराओं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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