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________________ २३२ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ बहुत से लोग तात्कालिक लाभ को देखते हैं, वे लुभावने प्रेय माग को सुखकारक समझकर झट-पट अपना लेते हैं, पर उसका परिणाम दुःख और शोक के रूप में ही प्रायः भोगना पड़ता है । बचपन से अपनी सन्तान को जो मोहवश अत्यधिक लाड़-प्यार में रखते हैं, निरंकुश एवं स्वच्छन्द बनने देते हैं, उनके पुत्र बड़े होकर प्रायः स्वच्छन्द अनाचार का सेवन करने लग जाते हैं, वे माता-पिता को भी कष्ट देते हैं, अविनीत बन जाते हैं, सारी सम्पत्ति दुर्व्यसनों में उड़ा देते हैं, उद्दण्ड हो जाते हैं, आवारा फिरते हैं, ज्यादा कहने-सुनने पर घर से भाग जाते हैं, अभिभावकों का सारा सुख स्वाहा हो जाता है। इसी प्रकार सुख के सभी स्रोत प्रायः दुःखों से आक्रान्त हो जाते हैं । वशिष्ठ स्मृति में ठीक ही कहा है दुराचारो हि पुरुषो लोके भवति निन्दितः । दुःखभागी च सततं व्याधितोऽल्पायुरेव च ॥ दुराचारी या अनाचारी पुरुष की लोक में सर्वत्र निन्दा होती है, वह पद-पद पर दुःखभागी बनता है, रोगग्रस्त रहता है और अल्पायु हो जाता है। आचारभ्रष्ट होने पर व्यक्ति चाहे कितना हो धन-साधन-सम्पन्न हो, सुखी नहीं रह सकता। वह अदूरदर्शितावश तात्कालिक क्षणिक मनःकल्पित सुख देने वाली वस्तुओं को अपनाता है, परन्तु उसका परिणाम मृत्यु, व्याधि, चिन्ता, पीड़ा और विपत्ति के रूप में भोगना पड़ता है। जैसे मछली आटे की गोली के लोभ में अपने प्राण गँवा बैठती है, वैसे ही सांसारिक सुखों के काल्पनिक लोभ में पड़कर लोग अपनी इन्द्रियाँ क्षीण कर बैठते हैं, जवानी में ही बुढ़ापा आ घेरता है, मद्य-मांस, व्यभिचार, जुआ आदि कुव्यसनों को अपनाकर धन को फूंक देते हैं ; अकाल में ही काल कवलित हो जाते हैं। ऐसे व्यक्ति अपने आप को सुखी कैसे कह सकते या मान सकते हैं ? स्वयं ही दुःख में पड़ता है मनुष्य जान-बूझकर ऐसे दुःखों को बुलाता है, अथवा दुःखों के कारणों को सुखकारक समझकर अपनाता है, परिणाम दुःखरूप आता है। नीतिकार ठीक ही कहते हैं व्रजत्यधः प्रयात्युच्चैर्नरः स्वरेव चेष्टितः। अधः कूपस्य खनक ऊवं प्रासादकारकः ।। मनुष्य अपनी ही चेष्टाओं से-प्रवृत्तियों से नीचे जाता है और अपने ही प्रयत्नों से ऊपर उठता है, जैसे कुए को खोदने वाला नीचे ही नीचे उतरता जाता है, और महल बनाने वाला ऊपर-ऊपर की ओर चढ़ता जाता है। सचमुच मानव भी प्रायः अपने ही हाथों से अपना पतन और उत्थान करता है । आचारांग सूत्र में भगवान् महावीर ने स्पष्ट कहा है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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