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________________ सुखोपभोगी के लिए इच्छानिरोध दुष्कर : २३१ लगा हो तो किस काम का ? बीमार आदमी के सामने खाने-पीने के अच्छे-अच्छे पदार्थ रखे हों, पहनने के बढ़िया से बढ़िया वस्त्राभूषण हों, तो भी क्या वह उनका उपभोग कर सकता है, उसकी रुचि उन पदार्थों में कैसे जगेगी ? इसी प्रकार किसी व्यक्ति के पास धन और सुखोपभोग के प्रचुर साधन हैं, किन्तु उसके परिवार में आए दिन गृहकलह, संघर्ष और तू-तू मैं-मैं होता रहता है, या वह किसी प्रकार की चिन्ता, शोक, खतरा, भय, अपमान, बदनामी आदि से पीड़ित है । समाज में जगह-जगह उस पर चख-चख हो रही है, तो वह धन या सुखोपभोग के वे साधन उसे किसी भी प्रकार से सुख नहीं दे सकेंगे। किसी के पास धन भी प्रचुर मात्रा में है, सुखोपभोग के साधन भी हैं, लेकिन उसके कोई पुत्र नहीं है, तब भी वह धन या साधन उसे काटने को दौड़ेगा, उसके मन में सुख-शान्ति का अनुभव नहीं होगा। इसी प्रकार सब कुछ साधन होते हुए भी बचपन में ही माता-पिता का वियोग हो गया, या बुढ़ापे में पुत्र वियोग हो गया, अथवा जो पद या अधिकार उसे मिलना चाहिए था, वह दूसरे को मिल गया, या किसी परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो गया, व्यापार में घाटा लग गया, व्यवसाय ठप्प हो गया ऐसी स्थिति में मनःकल्पित सुख दूरातिदूर होता जाएगा। इसलिए सांसारिक सुखों का उपभोक्ता वही सच्चे माने में माना जा सकता है, जिसका शरीर स्वस्थ हो, धन भी पर्याप्त हो, चरित्र एवं नैतिक जीवन उज्ज्वल होने से यश भी प्रचुर मात्रा में फैला हुआ हो, कोई पद भी हो, संतान भी हों तथा पंचेन्द्रिय-विषयों का उपभोग करने की शक्ति, परिस्थिति और योग्यता हो। ऐसा व्यक्ति भी तभी सुखोपचित माना जा सकता है, जब वह किसी प्रकार के शोक, चिन्ता, भय, अपमान, बदनामी और संकट से ग्रस्त न हो। सुखोपभोगी कितना सुखसम्पन्न, कितना नहीं? इस प्रकार का सुखोपभोगी उपर्युक्त सुख के सभी स्रोतों से युक्त हो, ऐसा प्रायः नहीं होता । संसार में ऐसे व्यक्ति प्रायः विरले ही मिलते हैं, जो सभी सांसारिक सुखों से ओतप्रोत हों। इसका कारण यह है, कि जो लोग सुखसम्पन्न होते हैं, वे प्रायः धर्मसंस्कार छोड़ बैठते हैं, धर्माचरण से हट जाते हैं, नाना कुव्यसनों में फंस जाते हैं, अनाचार या हीनाचार से युक्त हो जाते हैं, जिसका प्रतिफल उन्हें दुःख और विपत्ति के रूप में भोगना पड़ता है। क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। असंयम बरतने पर कोई न कोई रोग-महारोग आ घेरता है । कटुवचन बोलने से शत्र ता, अप्रियता बढ़ती है, धन के अपव्यय से दरिद्रता आती है, नशैली वस्तुओं के दुर्व्यसन से तन, मन, बुद्धि और धन का ह्रास होता है, आलस्य और अकर्मण्यता में पड़े रहने से मनुष्य अतिभोगीविलासी बन जाता है । अतिलोभवश बेईमानी, छल-कपट, ठगी और धोखेबाजी से संग्रह किया हुआ धन अनेक विपत्तियों और चिन्ताओं का कारण बनता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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