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________________ सुखोपभोगी के लिए इच्छानिरोध दुष्कर : २३३ दुक्खे केण कडे ? समणाउसो, दुक्ख सएण कडे' दुःख किसने किया है ? दुःखकर्ता और दूसरा कोई नहीं है, यह जितना भी दुःख है, वह स्वयं प्राणी का किया हुआ है। किन्तु अज्ञानी मनुष्य चाहे कितना ही धन और साधनों से लदा हो चाहे कितने ही सुखोपभोग के साधन-सुविधाओं से भरा-पूरा हो, वह अपने ही गलत विचारों एवं विपरीत दृष्टिकोण के कारण दुःखी होता रहता है। कई बार मनुष्य दूसरों की उन्नति देखकर या दूसरे की प्रसिद्धि होती देख कर कुढ़ता-जलता रहता है । वह ईर्ष्या, द्वेष, वैर-विरोध आदि के कारण स्वतः दुःखी होता रहता है। कई बार दूसरों के पास अपने से अधिक धन या आमोद-प्रमोद के साधन देखकर चिन्तित एवं दुःखित होता रहता है । वास्तविक सुखोपभोगी सम्पदाओं से नहीं, विभूतियों से ___ सम्पदाएँ दूसरों को प्रभावित करती हैं, पर अपने पर भार बनकर लदी रहती हैं । धन, वैभव, पद, बड़प्पन आदि सम्पदाओं को देखकर दूसरे लोग अनुमान लगा लेते हैं कि यह व्यक्ति बड़ा सुखी है, पर असल में बात ऐसी होती नहीं है। जिस प्रकार कोल्हू के बैल को चलते देखकर यह अनुमान लगा लिया जाए कि यह तेल पीता होगा, खली खाता होगा और तेल के व्यापार से लाभ उठाता होगा पर यह मान्यता सही नहीं होती इसी प्रकार अँधेरी रात में जंगली वृक्ष हाथी जैसा लगता है, पर पास में जाने पर यह भ्रान्ति दूर हो जाती है, उसी प्रकार सम्पदाएँ दूर से चमकती तो खूब हैं, पर कोई वहाँ चला जाय तो चन्द्रमा वायु, जल, एवं जीवन से रहित एक निष्प्राण नीरव पिण्ड-सा दृष्टिगोचर होगा ; इसी प्रकार दूर से चमकने वाली संगृहीत सम्पदा बहुधा समीपवतियों में ईर्ष्या, द्वष उत्पन्न करती है । जैसे मधुमक्खी के छत्त पर न जाने कितनों का दाँव लगा रहता है, वैसे ही संगृहीत सम्पदा पर घात न लगे तो भी शत्रु तो प्रायः बन ही जाते हैं, ठग पीछे पड़े रहते हैं, उसकी रक्षा बड़ी कठिन होती है। फिर उस सम्पदा के साथ विवेक न हो तो मनुष्य को वह मदोन्मत्त, अहंकारी, कुव्यसनी और विलासी बनाकर पतन के गर्त में धकेल देती है। इसके विपरीत विभूतियाँ दूसरों को सहसा दिखाई नहीं पड़तीं, वे चमकती नहों, पर स्वयं के जीवन में आनन्द, सुख-शान्ति और उल्लास भर देती हैं। वे विभूतियाँ हैं आन्तरिक सद्गुण । असली सम्पदाएँ यही हैं। ये विभूतियाँ जहाँ भी होंगी, व्यक्ति के जीवन में श्रेष्ठता का समावेश करेंगी, सम्मान और सहयोग तथा मैत्री का क्षेत्र बढ़ायेंगी। प्रशंसकों की कमी न रहेगी। इसका कारण यह है कि सच्चरित्रता और प्रामाणिकता के आधार पर ही विश्वास प्राप्त किया जाता है और विश्वासी को समाज में अपनाया जाता है, महत्त्वपूर्ण कार्य सौंपे जाते हैं और सहयोग दिया जाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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