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धूत में आसक्ति से धन का नाश : ६९
एवं सांस्कृतिक हानि-लाभ को सोचने की बुद्धि प्रायः नहीं होती । यही कारण है कि अधिकांश जुआरी एक बार जूए में बर्बाद हो जाने पर भी नहीं संभलते, वे अमीर होने के चक्कर में पुनः-पुनः दाँव लगाते रहते हैं, किन्तु दुर्भाग्य के शिकार होकर वे अन्त में गाँठ की समस्त पूँजी गंवा बैठते हैं, यहाँ तक कि घर के बर्तन, कपड़े तथा अन्य जरूरी सामान भी जूए में लगा देने से उनके पास कुछ भी शेष नहीं रहता। अतः वे हाथ मल-मलकर पछताते हैं, रोते-झींकते हैं। किन्तु फिर रोने-पीटने से क्या होता, जब चिड़िया चुग गई खेत ? जूआ खेलने से पहले वे नहीं सोचते, बीच में जब दाँव हार जाते हैं, तब भी नहीं संभलते और अन्त में जब सर्वस्व खो बैठते हैं, तब उनकी बुद्धि थोड़ी-सी काम करती है, किन्तु पश्चात्ताप के सिवा तब क्या करने को रह जाता है ?
जूए का धन : रहता कितने क्षण ? मृच्छकटिक नाटक में जुआरी की मनोवृत्ति का परिचय देते हुए कहा गया है
न गणयति पराभवं कुतश्चित्, हरति ददाति च नित्यमर्थजातम् । नृपतिरिव निकाममायदर्शी,
विभववता समुपास्यते जनेन ॥ अर्थात्-जुआरी अपनी हार या तिरस्कार की कोई परवाह नहीं करता। वह प्रतिदिन जुए में धन हार जाता है, और थोड़ा-बहुत जीतता है तब पैसा पानी की तरह बहाता है, दूसरों को धन देता रहता है । वह हमेशा राजा की तरह अपनी आय बहुत अधिक मानने का आदी हो जाता है, इसलिए उसके चारों ओर वैभवशाली या वैभवाकांक्षी लोग मँडराते रहते हैं ।
हारे हुए जुआरी की अपेक्षा जीता हुआ जुआरी और अधिक खतरनाक साबित होता है । अनायास ही बिना परिश्रम के बहुत-सा धन मिल जाने से वह बिना सोचे-विचारे खर्च करने के लिए उतावला हो जाता है । वह प्रायः समाज में प्रतिष्ठा बरकरार रखने हेतु जीतते ही अनाप-शनाप खर्च कर डालता है।
पाश्चात्य विचारक कॉल्टन (Colton) के शब्दों में कहूँ तो
"Gambling is the child of avarice but the parent of prodigality."
"जूआ लोभवृत्ति का बच्चा है, जबकि फिजूल-खर्ची का मां-बाप है।"
शुभकार्यों में पैसा लगाने या सुरक्षित रखने की बात उसके मस्तिष्क में आती ही नहीं। ढूढ़ने पर ऐसे हजारों उदाहरण मिल जाएँगे, जहाँ जूए की कमाई ने मनुष्य को पृथभ्रष्ट किया है; विलासिता और अन्य दुर्व्यसनों में जूए में जीती
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