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३१६ : आनन्द प्रवचन : भाग १२
सेठ अपना सा मुँह लेकर चल दिया । रास्ते में ख्याल आया कि पर्वमित्र के यहाँ भी चल कर देखूं । लेकिन घर में शरण देने और मुकदमे में पैरवी करने की बात सुनते ही उसके देवता कूच कर गए। टका सा जवाब दे दिया - " मित्र ! मैं आपको धन दे सकता हूँ, अपने घर में शरण नहीं । मैं बैठे-सोते इस संकट को क्यों मोल लू ?" सेठ निराश होकर वहाँ से चल पड़ा । वह अब घर की ओर जा रहा था कि उसकी नजर ऐसे व्यक्ति पर पड़ी, जो कोठी के बरामदे में घूम रहा था, यह वही तीसरा मित्र था । विचार आया - 'इससे भी कह कर देख लूं । शायद काम बन जाए ।' सेठ ने ज्यों ही घर में शरण देने को कहा, तो उसने तुरन्त हाँ करली । बोला - " मेरा परम सौभाग्य है कि मैं आज मित्र के काम आया । ऐसे संकट के समय मैं काम न आऊँ तो मित्र कैसा ?" उसने सेठ को अपने घर में शरण दो । उसके खिलाफ अभियोग की पैरवी की, जिससे वह निर्दोष बरी हो गया ।
यह दृष्टान्त है । दान्तिक इस प्रकार है— शरीर चौबीस घंटे का मित्र है, पर संकट और मोत के वारंट के समय शरण नहीं दे सकता, दूसरे पर्वमित्र सगे सम्बन्धी गण हैं, वे भी शरण न देकर जबाव दे देते हैं। तीसरा मित्र धर्म है, वही मौत के वारंट आने पर या संकट आ पड़ने पर शरण देता है और उस संकट से मुक्त करा देता है, कर्मों के बन्धन से भी छुड़ा सकता है । और सभी आँखें फेर लेते हैं, पर धर्मं आँखें नहीं फेरता । अतः संसार की कोई भी नाशवान वस्तु शरण नहीं दे सकती, धर्म ही एक मात्र स्थायी शरण दे सकता है । धर्म : एक सार्वभौम व्यापक सत्ता
धर्म की सत्ता भी बहुत व्यापक है। शरीर, मित्र, माता-पिता आदि सम्बन्धी या अन्य सांसारिक लोगों का दायरा बहुत ही सीमित है, जबकि धर्म एक अपरिवर्तनशील, शाश्वत एवं विश्वव्यापी सत्ता है । यह एक सार्वभौम शक्ति है । जिसका लक्ष्य'सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः' है । धर्म एक ऐसी सत्ता है, जिसकी शक्ति एवं सीमाएँ असीम हैं । वह राजसत्ता से कई गुना अधिक व्यापक एवं शक्तिमान है । राजसत्ता तो अपने छोटे से भौगोलिक क्षेत्र में निश्चित परिधि में ही कार्य करती है । धर्मसत्ता का कार्यक्षेत्र समूचा विश्व है । विश्व का हर मानव धर्मसत्ता की प्रजा है, और हर मानव धर्मशासन का शासक भी है। धर्मसत्ता का कार्यक्षेत्र न केवल मानव के स्थूल शरीर तक ही सीमित है, वरन् उसके मनन, चिन्तन, इन्द्रियविषय, स्वभावनिर्माण, गुण- विकास, संस्कार - निर्माण, चरित्र निर्माण एवं उसकी आत्मा तक विस्तृत है । अगर हर मनुष्य धर्म महासत्ता के अधीन अपने आपको सम्बद्ध करले, उसकी शरण में आकर या अनुशासन में रहकर अपना स्वभाव, देव, आदत, संस्कार एवं गुणविकास एवं चरित्र बना ले तो वह धर्ममय बन सकता है । वेदों में धर्म को सार्वभौम मूलाधार बताते हुए कहा है'धर्मो विश्वस्य जगतः प्रतिष्ठा' "धर्म सारे विश्व का प्रतिष्ठान है - आधार है ।',
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