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धर्म ही शरण और गति है : ३१५
कदाचित् वे थोड़े समय के लिए शरण दें भी दे तो भी अन्त में वे जवाब दे देते हैं। धर्म ऐसा शाश्वत शरणदाता है कि एक बार शरण देने के बाद फिर शरण ग्रहण करने वाले को स्वयं नहीं छोड़ता।
__धर्म ही सच्चा मित्र और शरणदाता एक सेठ था। वह धनाड्य होने के साथ-साथ धर्मात्मा भी था । उसको परिवार भी सुसंस्कारी और संप में दृढ़ मिला था। एक दिन वह एक नीति की पुस्तक पढ रहा था, उसमें लिखा था-मनुष्य को मित्र तो सैकड़ों बनाने चाहिए, शत्र एक भी नहीं । वह यह पढ़कर विचार में पड़ गया-'मित्र कैसे बनाऊँ ? मुझे तो अपने व्यापारधन्धे से भी फुरसत नहीं।' वह अपने सगे-सम्बन्धियों के सिवा किसी से ज्यादा परिचय ही नहीं बढ़ाता था, इसलिए मित्र बनाने में कठिनाई अवश्य थी, फिर भी उसकी उत्कण्ठा प्रवल थी, इसलिए हार्दिक मित्र बनाने की धुन में घर से चल पड़ा । सेठ कुछ ही दूर चला होगा कि एक सफेदपोश व्यक्ति मिल गया, उसने पूछा- “सेठ ! कहाँ चले आज ?'' सेठ-'कहीं नहीं, एक मित्र बनाने की इच्छा से घर से चला हूँ।"
सफेदपोश -"तो मुझे ही बना लीजिए न ? आज से मैं आपका मित्र रहा।"
सेठ राजी हो गया। एक मित्र बन गया। सेठ सिर्फ मित्र बनाकर ही नहीं रहा । उस मित्र को सेठ ने अपनी आधी सम्पत्ति, मकान आदि भी दे दिये । मित्र प्रसन्नता से उछल पड़ा । अब तो वह परछाई के समान सेठ के साथ-साथ रहने लगा । जहाँ भी सेठ जाता, जो भी काम करता, सबमें वह साथ रहता। इस प्रकार वह २४ घंटे साथ रहने वाला मित्र बन गया। इसी बीच एक दूसरा मित्र भी बन गया, जो तीज, त्यौहार आदि पों पर आया-जाया करता, बातचीत करता और खा-पीकर चला जाता। सेठ स्वास्थ्यलाभ के लिए घूमने जाता था, उसी दौरान साल-छह महीने में एक व्यक्ति से भेंट हो जाती थी। दोनों परस्पर अभिवादन मात्र कर लेते व कुशल-मंगल पूछ लेते थे। एक दूसरे से विशेष जान-पहचान नहीं थी। यह भी एक तीसरा मित्र बन गया।
उन्हीं दिनों नगर में एक दुर्घटना हो गई । किसी व्यक्ति ने एक व्यापारी की हत्या कर दी और लाश मौका पाकर रखवा दी, सेठजी के मकान में । षडयंत्र इस खूबी से रचा गया था कि जांच होने पर सेठजी अपराधी सिद्ध हो गये । लोग हैरान थे कि इतने बड़े धर्मात्मा सेठ ने एक व्यक्ति की हत्या कैसे कर दी? लेकिन कानून तो अंधे का लठ्ठ है, जिस पर पड़ जाता है, पड़ ही जाता है । सेठ ने सोचा-'गिरफ्तारी से पहले किसी मित्र के यहाँ छिप जाना चाहिए, ताकि वह मित्र मामले की पैरवी करके बरी करा दे।' इसी आशा से सेठ २४ घंटे वाले मित्र के पास गये और उसे अपने घर में आश्रय देने के लिए कहा । मगर उसने साफ इन्कार कर दिया-''मित्र ! वैसे तो आप के लिए जान हाजिर है, लेकिन अपने यहाँ आश्रय नहीं दे सकता, राजा को पता लग गया तो मेरे परिवार पर आफत आ जाएगी। पैरवी भी मुझसे न हो सकेगी।"
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