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२४० : आनन्द प्रवचन : भाग १२
क्या नहीं बोलना, कितना बोलना? क्या देखना, क्या नहीं देखना ? क्या खाना, क्या नहीं खाना, कितना खाना, कब खाना ? कितना, कहाँ, कब सोना, कितना, कहाँ और कब न सोना ? कहाँ बैठना, कितना बैठना, कब तक बैठना और कहां, कितना और कब तक न बैटना ? कहाँ, कैसे और कब जाना, कब, कैसे और कहाँ न जाना ? किस के साथ, कैसे, कब तक रहना, किसके साथ, क्यों और कब तक न रहना ? इत्यादि क्रियाओं-प्रवृत्तियों पर कोई अंकुश नहीं है, विवेक नहीं है, किसी बात का नियम नहीं है, कोई भी विचार नहीं है। पशु की तरह स्वच्छन्द है अथवा राक्षसों या बर्बर लोगों की तरह कोई आचार-विचार नहीं है । इसी प्रकार चाहे जिस वस्तु का, चाहे जब, चाहे जैसी स्थिति में स्वच्छन्द उपभोग करना निरंकुश भोगवाद है । मनुष्य मर्यादाशील होने पर ही पारिवारिक, सामाजिक या नागरिक बन सका है, परन्तु जो मनुष्य परिवार, समाज, राष्ट्र या प्रान्त अथवा ग्राम-नगर की मर्यादाओं का पालन नहीं करता, वह न तो पारिवारिक है, न सामाजिक और न ही नागरिक । अगर वह किसी परिवार, समाज, राष्ट्र या ग्राम-नगर में सुख-शान्तिपूर्वक रहना चाहता है, तो परिवार समाज, राष्ट्र या ग्राम-नगर के नियम, कानून, विधि-विधान आदि मर्यादाओं का पूर्णतया पालन करना होगा, तभी वह उस परिवार, समाज, राष्ट्र या ग्राम-नगर का सदस्य हो सकेगा।
आप भी जिस धर्म-सम्प्रदाय के हैं, अगर आप उस धर्म-सम्प्रदाय के मौलिक नियम-मर्यादाओं का पालन नहीं करते हैं तो आपको लोग उस धर्म के अनुयायी कहने से हिचकिचाएँगे । परन्तु इन धर्म-मर्यादाओं, विधि-विधानों, नियमों या व्यवहारों का किसी भी तरह से जो पालन करना नहीं चाहता वह निरंकुश भोगवादी है, स्वच्छन्दी है, शास्त्रीय भाषा में अविरति है। ऐसा अविरत आत्मा प्रायः असंतोषी होता है । वह चाहे जब, चाहे जो चीज खाने-पीने को तैयार हो जाता है, किसी भी निषिद्ध वस्तु से परहेज नहीं करता है । अग्नि की तरह सर्वभक्षी है ।
ऐसा निरंकुश भोगवादी मनुष्य भी अपनो इच्छाओं पर कोई नियन्त्रण नहीं कर पाता। ऐसा असन्तुष्ट एवं विषयलोलुप व्यक्ति स्वस्थ, सन्तुष्ट, प्रसन्न एवं हृष्टपुष्ट नहीं रहता । इस विषय में एक उदाहरण लीजिए
'प्रवर' पुरिमताल नगर का क्षत्रिय पुत्र था । वह नगर में अस्तव्यस्त और फटेहाल होकर भिखारी की तरह घूमता फिरता था। उसके किसी भी चीज का कोई व्रत, नियम या प्रत्याख्यान नहीं था। जो मन में आया खाया, जो मन में आया पिया, पहना, जब और जहाँ मन में आया सो गया, असभ्य और स्वच्छन्द था, अविरति था । सर्वभक्षी था, जो हाथ में आया खा जाता था। खाने-पीने पर कोई अंकुश न रहने से उसे अजीर्ण हो गया और धीर-धीरे उसके शरीर में कोढ़ फूट निकला। उसे कोढ़ी जानकर लोग उसे फटकारने-धिक्कारने और दुरदुराने लगे, इससे घबराकर वह नगर के बाहर निकल गया। वहाँ घूमते-घूमते एक जगह उसे प्रशान्त एवं भव्य
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