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________________ सुखोपभोगी के लिए इच्छानिरोध दुष्कर : २४१ तपस्वी मुनि दिखाई दिये । उसने निकट जाकर दर्शन किये । वन्दन करके सविनय पूछने लगा "भगवन् ! मुझे यह कुष्टरोग किस कारण से हुआ ? यह रोग कैसे मिटेगा ?" इस पर मुनि ने कहा-"भद्र ! जो अविरति-आत्मा होता है, वह सदा असन्तुष्ट रहता है । वह किसी वस्तु का उपभोग न करे तो भी उसे विरति का लाभ नहीं मिलता । जैसे कोई व्यक्ति साहूकार से ब्याज पर धन लाकर अपने व्यापार में न लगाए, घर में यों ही रखदे, तो भी उसे उसका ब्याज तो देना ही पड़ता है । अतः जब जीव हिंसा आदि से विरति करता है, तभी उसे विरति का लाभ मिलता है। "जैसे एकेन्द्रिय जीव कोई पाप नहीं करता, परन्तु पापों से विरति किये बिना उसके अठारह ही पाप (पापस्थानक) लगते रहते हैं, वैसे ही तुमने भी अविरति के कारण जहाँ गए, वहाँ जिस समय जो भी मिला खाया; न रात देखा, न दिन; इस कारण तुम्हें अजीर्ण हुआ और उसकी प्रबलता के कारण कोढ़ हुआ। यह रोग तभी मिट सकता है जब तुम पापों से विरति करो और चारों ही आहार का सेवन परिमाणपूर्वक करो । इसी से तुम्हारा कल्याण भी होगा।" प्रवर ने गुरुदेव के वचन शिरोधार्य किये और इस प्रकार नियम लिया''आज से आजीवन मैं एक ही अन्न, एक ही विगय और एक ही साग लूंगा, और अचित्त पानी पीऊँगा।" गुरुदेव ने कहा-"जिस प्रकार का तुमने संकल्प किया है, उसी रूप में पालन करना, पालन का ही सबसे बड़ा लाभ है।" गुरु के वचनों को स्वीकार करके वह अपने स्थान पर आया। पूर्वोक्त नियम का पालन करने से वह स्वस्थ हो गया । इससे उसे धर्म पर दृढ़ श्रद्धा हुई। धर्मपूर्वक निष्पापवृत्ति से व्यापार करने लगा । धर्म के प्रताप से उसने करोड़ों रुपये कमाए । निरंकुश भोगवाद पर उसने पूरा नियंत्रण कर लिया । स्वयं ने जो नियम लिया था, उसे कभी खण्डित नहीं किया । अत्यन्त सुख-सुविधाओं से सम्पन्न होने पर भी उसने अपनी इच्छाओं का निरोध रखा । अपने नियमानुसार भोजन करते हुए वह सुपात्रों तथा दीनों-अनाथों को यथायोग्य दान देने में तत्पर रहता था। एक बार भयंकर दुष्काल पड़ा, तब उसने एक लाख मुनिवरों को निर्दोष चतुर्विध आहार का दान दिया । सार्मिकों को उसने गुप्तदान देकर उन्हें धर्म में स्थिर किया। इस प्रकार आजीवन वह दृढ़वती रहा, जिसके परिणामस्वरूप वह सौधर्म देवलोक में इन्द्र का महर्द्धिक सामानिक देव हुआ। __बन्धुओ ! इस उदाहरण से स्पष्ट समझा जा सकता है कि निरंकुश भोगवाद सुखोपभोग में कितना बाधक होता है, और उस अतिदुष्कर भोगवाद का त्याग करके अपनी इच्छाओं पर नियन्त्रण करने से मनुष्य सुखों से कितना सम्पन्न हो जाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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