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२४२ : आनन्द प्रवचन : भाग १२
जिसके जीवन में निरंकुश भोगवाद पनपता है, उसमें अन्तःकरण की आस्तिकता, सद्भावशीलता, धार्मिकता, आध्यात्मिकता, सदाशयता एवं संस्कारसम्पन्नता आदि आस्थाएँ लगभग समाप्त हो जाती हैं । फलतः ऐसे व्यक्ति के जीवन में अपराधी प्रवृत्तियाँ बढ़ जाती हैं । साथ ही भय, आशंका, अविश्वास, घृणा और लोभ की अधिकता भी प्रचुर मात्रा में घर कर जाती है ।
अतिशय निरंकुश भोगवादी दृष्टिकोण ही नैतिक एवं नागरिक मर्यादाओं का अतिक्रमण तथा मानवीय संवेदनशीलता के नितान्त अभाव, स्तरहीनता, परपीड़न, असहकार आदि अवांछनीयताओं के लिए जिम्मेवार है । ऐसे अनास्थावादी लोग ही अपराधी बनते हैं, गुंडागर्दी अपनाते हैं, और हत्या, बलात्कार, चोरी, ठगी, जेबकटी जैसे नृशंस क्रूरकर्म करने से नहीं चूकते ।
ऐसे निरंकुश भोगवादी दृष्टिकोण वाले लोग सांस्कृतिक गतिविधियों का अर्थ भी नाच-गान, कामोत्त ेजन और अश्लील सस्ते मनोरंजन तक ही करते हैं । भोग की निरंकुश भूख और मनमानी उछल-कूद को ही जिस समाज में स्वाभाविक मान लिया गया हो, वहाँ हिंसा, क्रूरता तथा अन्य अपराध भी अवश्यम्भावी हैं ।
कहने को तो निरंकुश भोगवादी यों कह देते हैं कि धर्म, नीति या अध्यात्म से कोई धन, साधन, सामग्री या सुविधाएँ तो मिलती नहीं, फिर इन्हें अपनाने से और अपनी इच्छाओं या मन पर नियन्त्रण करने से क्या लाभ? उन्हें स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि अध्यात्म, नीति तथा धर्म के अन्तर्गत त्याग, तप, व्रत, नियम- प्रत्याख्यान एवं संयम से भौतिक धन नहीं, किन्तु उससे भी बढ़कर आत्मशान्ति, आत्मसन्तोष, वास्तविक आनन्द मिलेगा; तथा धन से, कोरे धन से जिस सुख-शान्ति की आशा रखी जाती है, वह नहीं मिलती, जबकि अध्यात्म, धर्म आदि से वह अवश्य मिलती है । अराजकता, असामाजिकता की चपेट से कोरा धन बचा नहीं रह पाता, परन्तु धर्म, अध्यात्म आदि द्वारा धन का इनसे संरक्षण हो जाता है । अतः धन के संरक्षण एवं सदुपयोग के लिए धर्म, अध्यात्म आदि आवश्यक हैं ।
निष्कर्ष यह है कि अवांछनीय अभिवृद्धि, अनुपयुक्त आकांक्षाएँ और निरंकुश भोगवाद, ये तीनों ही वास्तविक सुखोपभोग में प्रबल बाधक हैं । इच्छाओं का निरोध कितना सुकर, कितना दुष्कर ?
यह निश्चित है कि सुखोपभोग में मुख्य बाधक इन तीनों चीजों का जन्म इच्छाओं से होता है, क्योंकि आवश्यकताओं के आधार पर मनुष्य के मूल्यांकन और महत्त्व का विश्लेषण किया जाए तो पेट भर खाना, तन ढकने भर कपड़ा और रहने को आरामदेह हवादार मकान मिल जाए तो इसके बाद उसकी कोई जरूरत नहीं रहती । विचारशील मनुष्य के लिए शिक्षा और मनोरंजन भी जोड़े जा सकते हैं । परन्तु ये दोनों बौद्धिक विकास पर निर्भर हैं। क्योंकि शिक्षा जहाँ मनुष्य के बौद्धिक विकास और मानसिक
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