SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 25
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( २२ ) गति-प्रगति-दायक ३३०, धर्म-प्रगति में बाधक तत्त्वों को ठुकराकर धर्म में आगे बढ़ो ३३१ । १००. धर्म-सेवन से सर्वतोमुखी सुख-प्राप्ति ३३३-३४६ - धर्म-सेवन के लिए धर्मदृष्टि, धर्म-संस्कार आवश्यक ३३३, स्थानांग सूत्र के चार गोलों का दृष्टान्त ३३४, चन्द्रभान और चन्दनबाला (सेठ के पुत्र-पुत्री) का दृष्टान्त ३३५, धर्मसेवन का समग्र रूप : श्रवण, श्रद्धा और आचरण से ३४१, धर्मश्रद्वालु बुढ़िया का दृष्टान्त ३४३, धर्मसेवन से सर्वतोमुखी सुख के तीन मूल माध्यम ३४७, अहिंसा के माध्यम से ३४८, अहिंसा की समग्रता के लिए चार चरण अपेक्षित-(१) सेवा, (२) दया (३) करुणा अथवा सहानुभूति, और (४) परोपकार ३४८, संयम के माध्यम से ३४६, तप के माध्यम से ३४६ । For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy