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८. धर्म : जीवन का त्राता
६६. धर्म ही शरण और गति है
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धर्म : जीवन का रक्षक कैसे ? २६६, धर्म के दो रूप : अन्तरंग और बाह्य २६७, वास्तविक धर्म के अभाव में सुरक्षा कैसे हो ? २६७, जीवन के दोनों रूपों में धर्म से सुरक्षा २६८, धर्म का दूसरा रूप – सामाजिक जीवन का ताण ३००, राजा विक्रमादित्य का दृष्टान्त ३०१, धर्मधारणा भी रक्षण के अर्थ में ३०२, धर्म की रक्षात्मकता ३०३, धर्म : माता-पिता की तरह रक्षक ३०४, धर्म : बन्धु, सखा और नाथ ३०४, धर्म कैसे रक्षा करता है ? ३०५, पुरुषार्थहीन नवाब साहब का दृष्टान्त ३०६, धर्म से रक्षा : किसकी और क्यों ? ३०७ 'धर्मो रक्षति रक्षतः ' सूत्र की सूझ ३०८, जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज का स्वप्न ३०६, धर्म रक्षा क्यों नहीं करता ? एक शिकायत : एक समाधान ३१०, वाल्मीकि का दृष्टान्त ३११, धर्मरक्षा की प्राथमिकता कहाँ ३१२, धर्म को विदाई देकर सुरक्षा की आशा कैसी ? ३१२ ।
धर्म की ही शरण क्यों ? ३१४, धर्म ही सच्चा मित्र और शरणदाता ३१५, सेठ के तीन मित्रों का दृष्टान्त ३१५, धर्म : एक सार्वभौम व्यापक सत्ता ३१६, धर्म : एक महासागर ३१७, धर्म का उद्देश्य – सभी रुचियों, क्षमताओं आदि का समावेश ३१७, पतिता आम्रपाली धर्म - शरण लेकर पावन बनी ३१८, धर्मशरण : सर्वदुःखहरण ३१६, अनाथी मुनि का दृष्टान्त ३२०, 'धम्मं सरणं पवज्जामि' : क्यों और किस लिए ? ३२२, धर्मशरणविहीन जीवन : कितना लाभकर, कितना हानिकर ? ३२३, धर्मशरण में कितनी दृढ़ता, कितनी श्रद्धा हो ? ३२५, शरण ग्रहण का अर्थ – समर्पण ३२६, अर्जुन का श्रीकृष्ण की शरण ग्रहण का दृष्टान्त ३२७, धर्म :
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