________________
१४० : आनन्द प्रवचन : भाग १२
__ इसीलिए हिंसा में आसक्त व्यक्ति के धर्म का नाश हो जाता है। उसकी कोमल वृत्तियाँ दब जाती हैं, क्रूरता उभर आने के बाद दया, क्षमा, सहिष्णुता, सहानुभूति आदि भावनाएँ भी मर जाती हैं।
तथागत बुद्ध के समय में अंगुलिमाल नाम का हत्यारा एवं डाकू हो गया है। वह दुनियाभर का हत्यारा अपने आपको सिद्ध करने की धुन में था। उसने तय कर लिया था कि लोगों को काटकर उनकी अंगुलियों की माला पहनूंगा। इसीलिए उसका असली नाम तो इतिहास में लुप्त हो गया, 'अंगुलिमाल' नाम प्रसिद्ध हो गया।
क्या अंगुलिमाल को धर्म-अधर्म या पुण्य-पाप की कोई चिन्ता थी? उसके हाथ से मरने वाले उसको देव समझते थे या दानव ? यह तो आप ही बता देंगे कि वह हिंसा के कारण दानव बन गया था । अतः संकल्पी और प्राणिहिंसानन्द नामक तीव्र रौद्रध्यान पैदा करने वाली जानबूझकर की गई निरर्थक हिंसा से यहाँ तात्पर्य है। ऐसी हिंसा में रत व्यक्ति सद्धर्म का-कोमल मानवीय गुणों का नाश कर देता है। इसीलिए महाभारत शान्तिपर्व में स्पष्ट कह दिया है--
__ 'अधर्मः प्राणिनां वधः' -प्राणियों का वध (हिंसा चाहे किसी रूप में हो), धर्म नहीं है । हिंसा : विविध रूपों में
__ हिंसा का तात्पर्य समझ लेने के बाद सहसा प्रश्न होता है कि ऐसी हिंसा के कितने रूप हैं ? किन-किन रूपों में हिंसा मानव-जीवन में घुसती है ? मुख्य रूप से नौ रूपों में हिंसा प्रविष्ट होती है, जिसका त्याग करना आवश्यक है । आध्यात्मिक विकास के लिए सर्वप्रथम इस प्रकार की हिंसा का त्याग करना अनिवार्य है।
(१) शिकार खेलने या करने के रूप में (२) मुर्गों, सांडों, मानवों आदि को लड़ाकर हत्या कराने के रूप में (३) विविध शृंगार-साधनों आदि के रूप में की जाने वाली प्राणिहत्या
के रूप में (४) दवाओं, प्रयोगों और परीक्षणों आदि के नाम पर (५) हत्या या कत्ल करने-कराने के रूप में (६) पशु-पक्षी एवं मनुष्य की बलि के रूप में (७) धर्म के नाम पर होने वाली भयंकर हिंसाएँ (८) लूट, डाका, आगजनी आदि के रूप में (६) युद्ध द्वारा नरसंहार के रूप में
यों तो सूक्ष्म और स्थूल हिंसा के असंख्य विकल्प (भंग) हैं । किन्तु यहाँ जिन हिंसाओं का त्याग करना आवश्यक है, वे भयंकर घोर हिंसाएँ हैं । अब हम क्रमशः इन सब मुद्दों पर विचार करेंगे।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org