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________________ हिंसा में आसक्ति से धर्मनाश | १४१ शिकार के रूप में हिंसा कितनी भयंकर ? जब अपना मनोरंजन या शौक पूरा करने के लिए अथवा अपना पौरुष बताने, शक्ति बढ़ाने आदि के रूप में मनुष्य किसी भी निर्दोष प्राणी को मारता है, वह शिकार कहलाता है। शिकार को आखेट या मृगया भी कहते हैं । प्राचीन काल में राजा-महाराजा आदि क्षत्रिय लोग अपने मनोरंजन या शौक के लिए शस्त्रास्त्रों से ससज्जित होकर अपने दल-बल सहित जंगलों में जाते और वहाँ निर्दोष विचरण करने वाले निरपराध हिरनों, चीतों, सिंहों, भालुओं आदि की ओर निशाना ताक कर मार डालते थे। जैनाचार्यों ने सप्त कुव्यसनों में शिकार को पाँचवाँ व्यसन माना है। शिकार को शास्त्रों में भयंकर पाप और पापद्धि कहा है। पापद्धि का अर्थ हैपाप की ऋद्धि-वृद्धि या प्राप्ति कराने वाला। शिकार को भयंकर पाप कहने का कारण शिकार इसलिए भयंकर पाप माना जाता है कि एक तो उसमें जान-बूझकर निरपराध जीवों की संकल्पी हिंसा की जाती है, दूसरे उसमें प्राणिहिंसानन्दरूप रौद्रध्यान रहता है, अर्थात् शिकार करने वाले के हृदय में उस प्राणी को येन-केनप्रकारेण मार डालने की धून होती है। तीसरे, जब शिकारी वन में पशु-पक्षियों का शिकार करने जाता है, तब केवल एक ही जीव को मारता है, ऐसी बात नहीं; वह वहाँ जो भी जीव सामने मिल जाता है, उसे एक के बाद धड़ाधड़ बंदूक की गोली छोड़कर मारता जाता है। उसके एक ही जीव के मारने का कोई नियम नहीं होता। उसे तो मौका मिलना चाहिए। निहत्थे और निर्दोष वन्य-पशुओं को देखकर उसका लोभ बढ़ता ही जाता है। चौथे, शिकार खेलने वाला अकेला नहीं जाता, वह अपने साथ अपने दल को ले जाता है, फिर वह और उसके साथी वन्य-पशुओं की टोह में इधर-उधर दौड़ते हैं, जहाँ भी कोई पशु मिल जाता है, उसे मार डालते हैं, अथवा हिंस्र पशु हुआ तो उसे उकसाते हैं, घेरते हैं, मचान बांधकर निशाना ताकते हैं, और मार डालते हैं। इससे शिकारी स्वयं तो क्रूर बनता ही है, अपने साथियों या पिछलग्गुओं को भी कर बना देने में कोई कसर नहीं छोड़ता। शिकारी के साथ रहते-रहते शिकारी की तरह उन साथियों में भी दया, सहानुभूति, सहृदयता आदि की भावना मर जाती है। उनका भी हृदय कठोर और क्रूर हो जाता है । पाश्चात्य विचारक 'बक्सटन' (Buxton) इसी बात का समर्थन करता है__"One of the ill-effects of cruelty is that it makes the by-standers cruel." -क्रूरता के बहुत-से दुष्प्रभावों में से एक यह है कि यह पास खड़े रहने वालों को भी क्रूर बना देती है। पाँचवाँ कारण यह है कि शिकार के व्यसनी में दुर्व्यसन लग जाते हैं । अनेक पाप शिकारी इसके साथ-साथ करता है । शिकारी जब शिकार करने वन में जाता है तो बहुत-सी बार वह चारों ओर से हिंस्र पशुओं से घिर जाता है, तब उसकी जान पर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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