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________________ -१५८ : आनन्द प्रवचन : भाग १२, कर लोगों की विचारशक्ति और श्रद्धा को धर्म और सम्प्रदाय के नाम से अन्धश्रद्धा में लपेट कर अपने चरणों में समर्पित करने को विवश कर देते हैं, और फिर विनाशलीला का सृजन करते हैं, उसका यह एक ज्वलन्त उदाहरण है। हिंसा : लूट, डाका, आगजनी वगैरह के रूप में . हिंसा के असंख्य प्रकार हैं । कुछ साहसी एवं अत्याचारी लोग निर्दय बनकर राह चलते लोगों को लूट लेते हैं, घरों में डाका डालते हैं, आग लगा देते हैं, तोड़-फोड़ और दंगा करने पर उतारु हो जाते हैं। इन सबके पीछे, क्रोध, आवेश, द्वष, भयंकर स्वार्थ, लोभ, सत्तालिप्सा आदि कारण होते हैं। लुटेरे, डाकू, दंगाई, या अत्याचारी लोग केवल लूट आदि मचाकर ही नहीं रहते, वे बेरहमी से निर्दोष लोगों को मारतेपीटते हैं, जान से मार डालते हैं, डराते-धमकाते हैं, अंग-भंग कर देते या घायल कर देते हैं । इस प्रकार लूटपाट आदि भी एक अर्थ में हिंसा है, फिर मारपीट, वध आदि तो हिंसा है ही । ऐसी हिंसा क्या कभी धर्म हो सकती है ? हिंसा : युद्ध द्वारा नर-संहार के रूप में .... मनुष्य में जब असुरता बढ़ जाती है तो अत्यन्त नृशंस एवं बर्बर हो जाती है। छुटपुट लड़ाई से लेकर महायुद्ध तक जितनी भी क्रूरताएँ या विनाशलीलाएँ हुई हैं, सबके मूल में असुरता ही प्रधान रही है । युद्ध चाहे छोटा हो या बड़ा, जहाँ चलाकर छेड़ा जाता है, वहाँ उसकी तह में अपनी राज्यलिप्सा, दूसरे देशों में व्यापार वृद्धि की लिप्सा, अपने अहं की पूर्ति को लेकर निर्बल के साथ बल-प्रयोग या दमन-नीति होती हैं । इससे तिहरा लाभ प्रतीत होता है-(१) अपने अहं की तुष्टि, (२) आतंक से दूसरे लोगों द्वारा डरकर आत्म समर्पण करना और (३) अन्य भौतिक लाभ के अवसर। - शक्तिशाली पक्ष बहुत से कारण बताकर अपने लोगों को उकसाकर दूसरे पक्ष पर चढ़ दौड़ने की भूमिका निर्मित करता है। परन्तु युद्ध से थोड़ा-बहुत व्यक्तिगत लाभ भले ही किसी को हो जाए, सामूहिक रूप से भयंकर हानि है (१) लाखों निर्दोष व्यक्तियों का संहार । (२) जान-माल आदि का नाश । (३) संवद्धित संस्कृति का सत्यानाश । (४) मानसिक हिंसा। (५) देश की अर्थ-व्यवस्था चौपट । युद्ध कितने मंहगे, कष्टकर, विनाशकारी एवं अगणित समस्याएँ उत्पन्न करने वाले होते हैं ? यह अब भली-भांति समझा जाने लगा है। किसी जमाने में यह समझा जाता था कि शान्ति-रक्षा एवं आत्मरक्षा के लिए युद्ध करना आवश्यक है। पर मनोविज्ञान के निष्कर्षों ने हमारी आँखें खोल दी हैं कि युद्ध से कोई समस्या हल नहीं होती, हिंसा-प्रतिहिंसा, द्वेष, प्रतिशोध का कुचक्र, परस्पर आक्रमण के दाँव-घातों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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