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________________ १६६ ; आनन्द प्रवचन ; भाग १२ फिर चोरी इसलिए भी पाप है कि इससे असामाजिकता पनपती है । चोरी से समाज में अशान्ति, अव्यवस्था, अविश्वास, असन्तोष, एवं अनीति बढ़ती है। चोर सामाजिकता एवं राष्ट्रीयता को ताक में रख देता है। वह समाज और राष्ट्र के प्रति कृतज्ञ नहीं रहता । चोरी व्यसन बन जाती है, तब वह परिवार, समाज और राष्ट्र सबको बेचैन, परेशान और बदनाम कर देती है। उस स्थिति में चोर अपनी कुलीनता, शालीनता, संस्कृति और धर्म सबको ताक में रख देता है। प्रश्नव्याकरणसूत्र में चोरी के ३० नाम बतलाये हैं। उनसे स्पष्ट प्रतीत हो जाता है कि चोरी पाप ही नहीं, पाप से भी बढ़कर पापों की जननी है। इनमें से कुछ नाम ये हैं चोरी, परहृत, क्रूरकृत, असंयम, परधनगृद्धि, लौल्य, अपहार, पापकर्मकरण, धनलोपन, अप्रत्यय, अवपीड़, कूटता, कुलमसि, कांक्षा, लालपन (लल्लो-चप्पो करना), दुःखकारक होने से व्यसन, इच्छा-मूर्छा, तृष्णा-गृद्धि, निकृति (माया) कर्म, अप्रत्यक्ष, मित्रद्रोह इत्यादि । __इसके अतिरिक्त अदत्तादान लोकदृष्टि एवं साधुवर्ग की दृष्टि में कितना घृणित है ? यह भी प्रश्नव्याकरणसूत्र में बताया गया है "अवत्तादारणं... अकित्तिकरणं, अणज्जं. साहुगरणिज पियजता-मित्तजणभेव-विप्पीतिकारणं, रागदोषबहुलं ...।" अदत्तादान अकोति-कारक, अनार्य कर्म, साधुजनों द्वारा निन्दनीय, प्रियजनों और मित्रों में भेद तथा अप्रीति पैदा करने वाला एवं राग-द्वेष से परिपूर्ण है। इन सब कारणों से चोरी भयंकर पाप और कुव्यसन है । चोरी का कुव्यसन कैसे जन्मता, कैसे बढ़ता ? चोरी महापाप है, किन्तु यह जब व्यसन का रूप ले लेती है, तब उसकी पक्की आदत या वृत्ति बन जाती है, वह उसके संस्कारों में घुल-मिल जाती है तब चोरी से उसे घृणा नहीं होती। क्योंकि अब वह उसे बुरी नहीं समझता। किन्तु चोरी का जन्म पहले-पहल छोटी-सी चोरी से होता है। छोटा-सा बच्चा दूसरों की सोहबत से या अपने माता-पिता को देखकर प्रारम्भ में अपने घर से पैसा चुराता है । जब उसकी इस आदत पर उसके घर वाले कोई रोक-टोक नहीं करते तो उसका साहस बढ़ जाता है । वह सोचता है कि माता शाबाशी देती है, या मेरे चौर्यकर्म से प्रसन्न होती है तो मुझे अवश्य ही इस मार्ग पर आगे बढ़ना चाहिए । फलतः वह बड़ी चोरी करने लग जाता है। उम्र बढ़ने के साथ-साथ उसकी चोरी की आदत भी पक्की और साहसिक हो जाती है। कभी पकड़ा गया और जेल की हवा खानी पड़ी तो कुछ अर्से तक जेल में रहकर छूटने के बाद फिर चोरी करता है। इस प्रकार चोरी की कला में वह प्रवीण हो जाता है। यों चौर्य के विष का पौधा लगा तो था बचपन में, नादान अवस्था में, जबकि उसे धर्म, संस्कृति, राष्ट्रीयता या सामाजिकता का बोध नहीं था, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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