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________________ चोरी में आसक्ति से शरीरनाश : १६५ आजीवन चोरी का धन मेरे लिए गोमांस के समान होगा। बस, आज मेरा अपराध क्षमा कर दे, प्रभो !" निकट के गाँव से वैद्य को लाए। वैद्य ने दो-दो घंटे से दो दो पुड़िया दवा देने का कहा । आश्वासन दिया कि प्रभु ने चाहा तो तुम्हारा लड़का ठीक हो जाएगा। दो घंटे बाद मुझे इसकी हालत की खबर देना । दो घंटे बाद लड़का थोड़ा स्वस्थ हुआ, आँखे खोली हलचल करने लगा, तब सबके जी में जी आया । हेमू ने वैद्यजी को खबर दी । उन्होंने बदलकर दूसरी दवा दी। उसे आराम कराने का कहा और चल दिये । इधर हेमू भी तुरन्त घोड़े पर बैठ कर गाँव के किनारे चबूतरे के पास गड़ा हुआ गहनों का डिब्बा लेकर अट्टा गाँव धनीराम के यहाँ पहुँचा । हेमू को सहसा आए देख सब घबराए । उन्हें आश्वासन देते हुए हेमू ने कहा - "भाई धनीराम ! लो यह गहनों का डिब्बा ! यही मेरे लिए आफत का कारण बन गया। क्षमा करना, मैंने तुन्हें व्यर्थ ही डरायाधमकाया । लो यह पाँच रुपये मेरी ओर से तुम्हारी बेटी को दे देना।" धनीराम गद्गद हो गया । उसके अन्तर से आशीर्वाद फूट पड़े - "भगवान् तुम्हार। भला करें।" हेमू सन्तुष्ट होकर घर आया। उसका लड़का अब स्वस्थ था। उस दिन से हेमू ने फिर कभी चोरी न की। इस घटना से स्पष्ट है, चोरी का चस्का लग जाने के बाद जल्दी छूटता नहीं, अगर छूटता है, तो किसी बड़े आघात के कारण ही। इसी कारण चोरी सामान्य पाप नहीं; भयंकर पाप और कुव्यसन है । फिर जो चोरी करता है, असत्य तो उसके रग-रग में रम जाता है और हिंसा, वह तो उसकी सहचरी बन जाती है। जब चोर चोरी करने जाता है, उस समय घर में कोई उपस्थित होता है तो वह उसे मारता-पीटता, डराता-धमकाता है, यहाँ तक कि जान से भी मार डालता है। इसीलिए कहा है 'तस्करस्य कुतो धर्मः ?' --चोर का कौन-सा धर्म होता है ? मतलब यह है कि चोरी के साथ-साथ हिंसा, असत्य, परिग्रहवृत्ति, लोभ, कोध, कपट, अहंकार, निर्दयता आदि दुर्गुण-पाप, चोर में प्रविष्ट हो जाते हैं। प्रश्नव्याकरणसूत्र में चोरों के पापी स्वाभाव का वर्णन करते हुए कहा है - 'परदव्वहरा नरा णिरण कंपा जिरवेक्खा' -पराये धन का हरण करने वाले मनुष्य--चोर, निर्दय एवं परलोक के प्रति निरपेक्ष-लापरवाह होते हैं। __ चोरी करने वाला जब दूसरे की चीज को उसकी इच्छा, अनुमति या सहमति के बिना उठाता है, तब उसकी नीयत दूसरे की वस्तु को अपने कब्जे या स्वामित्व में करने की होती है । एक जगह से उठाकर वस्तु को दूसरी जगह रखने के पीछे, चोर की भावना या नीयत अच्छी नहीं होती, उसकी भावना दूसरे की वस्तु को अपनी वस्तु बना लेने की होती है। इसीलिए ऐसा दुष्कृत्य चोरी, अनीति, पाप, अधर्म एवं अपराध कहलाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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