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________________ १६४ : आनन्द प्रवचन : भाग १२ लगभग ७-८ हजार का गहना मिल जाएगा। आखिरी बाजी है। इसके बाद कहीं चोरी मत करना । अट्टागाँव यहाँ से सिर्फ ५ मील ही तो है । चलो, जल्दी।" पहले तो हेमू ने आनाकानी की, किन्तु उसकी पुरानी आदत और लालच दोनों ने उसके हृदय में हलचल मचा दी। सौगन्ध को भूलकर वह उस साथी के साथ चल दिया, बुकानीबंध वे दोनों धनीराम के घर में घुसे । हेमू ने धनीराम की छाती पर छुरा तानकर कहा--- "खबरदार, जरा भी हल्ला किया तो ! चुपचाप सारा गहना मेरे हवाले कर दे ।" । ___ धनीराम ने गिड़गिड़ाते हुए कहा- "भाई ! मैं गरीब आदमी हूँ। मेरे पास गहना कहाँ है ?" हेमू ने कहा --- "झूठ बोलता है, अभी इस छुरे से तेरा काम तमाम कर दूंगा।" - धनीराम ने घबड़ाते हुए कहा- "भाई ! वह तो लड़की का गहना है, मेरे लिए वह गोमांस के समान है।" इस प्रकार धनीराम ने बहुत आजीजी की, परन्तु हेमू ने कड़ककर कहा-"निकालकर लाता है या छुरा भौंक दूं।" धनीराम ने अन्दर के कमरे में रखी हुई सन्दूक में से गहनों का डिब्बा काँपते हाथों से हेमू के हाथ में सौंपा । दोनों चोर उस डिब्बे को लेकर नौ दो ग्यारह हो गए। रात को लगभग एक बजे गांव के निकट पहुँचे । वहीं एक चबूतरा बना हुआ था, उसके पास ही पेड़ के नीचे गड्ढा खोदकर डिब्बा गाड़ दिया। हेमू का साथी तो अपने घर पहुँच गया । परन्तु हेमू सीधा अपने खेत पर पहुँचा। वह खाट पर लेटा तो सही, पर आज न जाने उसे क्या हुआ, नींद नहीं आ रही थी। सहसा एक आदमी चिल्लाता हुआ आया-"हेमू भाई है क्या यहाँ पर ?" हेमू झटपट उठा और आवाज देकर उसे अपने पास बुलाया, पूछा -- "क्यों क्या बात है, बिरदू ?" बिरदू ने कहा - "जल्दी चलो, घर पर, तुम्हारे लड़के जीवन को पता नहीं क्या हुआ, अचानक उलटियाँ और टट्टियाँ होने लगीं, रुक ही नहीं रही है। वह निढाल एवं मरणासन्न होकर पड़ा है।" हेमू की आँखों के आगे अंधेरा छा गया । वह मन ही मन सोचने लगा-'हाय ! मैंने राधा के सामने बेटे की सौगन्ध खाकर चोरी न करने की प्रतिज्ञा ली थी, उसे भंग कर दी, हो न हो, धनीराम के संतप्त हृदय की आह लग गई है । प्रभो ! मुझे क्यों ऐसी कुबुद्धि सूझी? दो-ढाई हजार के लालच में अपने प्यारे लाल को खो बैठूगा ?' रास्ते भर उसकी आँखों के समक्ष धनीराम का गिड़गिड़ाता करुण चेहरा और रात की घटना चित्रपट की तरह आती रही । हेमू जैसे-तैसे घर पहुँचा । घर में राधा एवं पड़ौसिने बच्चे की चारपाई के आस-पास बैठी थीं । हेमू ने अपने पुत्र को देखा तो रुआंसा हो गया। मन ही मन प्रतिज्ञा की-"प्रभो ! मेरे बेटे जीवन की किसी तरह रक्षा करो। ज्यों ही यह थोड़ा स्वस्थ होगा, मैं तुरन्त धनीराम के गहने उसके सुपुर्द कर दूंगा। इसके बाद तो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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