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चोरी में आसक्ति से शरीरनाश : १६७
लेकिन उस अबोध अवस्था में जब यह विष का पौधा अंकुरित होने लगा था, तभी उसके अभिभावकों द्वारा उखाड़ दिया जाता तो वह न पनपने पाता और एक दिन विशाल विषवृक्ष का रूप धारण न करता; किन्तु माता-पिता या अभिभावक लाड़प्यार में बच्चे को कुछ नहीं कहते या चोरी की बुराइयां नहीं समझाते, इसी कारण चौर्य-विषवृक्ष बढ़ता गया और एक दिन उसकी जड़े काफी मजबूत हो गईं। अब उसे उखाड़ना किसी के वश की बात न रही। क्योंकि चोरी की कला में दक्ष और परिपक्व हो जाने पर वह न तो साधु-सन्तों की बात सहसा मानता है, और न ही किसी हितैषी धर्मपरायण व्यक्ति की बात सुनता है।
बचपन में जब अबोध बालक में चोरी के संस्कार का जन्म होता है, तब कोमलमति बालक को अपने हिताहित का, चोरी के दूरगामी दुष्परिणामों का भान नहीं होता । इस प्रकार चोरी का जन्म होता है और बढ़ते-बढ़ते पराकाष्ठा पर पहुंच जाता है । वस्तुतः चोरी का प्रारम्भ भले ही छोटी-सी चोरी से होता हो, किन्तु उसका अन्त बड़ा भयंकर होता है ।
माधो अभी अबोध एवं गरीब बालक था । दूसरे बच्चों के हाथ में तिलपपड़ी देखकर वह भी अपनी माँ के समक्ष मचल पड़ा-“माँ, आज तो मुझे तिलपपड़ी खिला।" माँ बोली 'बेटा ! हम गरीब हैं, हमें पेटभर रोटी भी मुश्किल से नसीब होती है, तो तुझे तिलपपड़ी कहाँ से खिला हूँ।" किन्तु बालहठ तो बालहठ ही है । बालक गरीब-अमीरी को क्या समझे ? वह हठ करता ही रहा । माँ ने उसे बहुत समझाया, तब कहीं वह ऊपर से तो शान्त हो गया, लेकिन उसकी इच्छा नहीं मरी । तिलसंक्रान्ति पर्व निकट आ रहा था। लोगों के घरों में तिलपपड़ी बन रही थी। जब बालक माधो और बच्चों को तिलपपड़ी खाते देखता, तो उसकी इच्छा भी तीव्र हो जाती । वह टुकुर-टुकुर ताकता और मन में संतप्त होता ।
एक दिन माँ उसे आंगन में नहला रही थी, शरीर पौंछने के लिए वह तौलिया लेने भीतर गई : पास में ही तेली रहता था। वह भी किसी कार्यवश भीतर कुछ लेने गया। तभी माधो अपनी तीव्र इच्छा पूरी करने हेतु दौड़ा और तिल में लोट गया। गीले शरीर में तिल चिपक गये । बस, माधो का काम बन गया, वह दौड़कर घर में घुस गया और प्रसन्नतापूर्वक माँ से कहने लगा-'ले माँ, तिल ले माँ !" माँ सब कुछ समझ गई । वह बच्चे की बुद्धि पर मुग्ध हो गई। उसने बच्चे को एक कपड़े पर खड़ा किया और उसके शरीर पर चिपके हुए तिल पौंछ लिये। इस प्रकार माधो की तिलपपड़ी खाने की इच्छा पूर्ण हो गई।
अब माधो की मनःस्थिति ऐसी हो गई कि जब भी वह तेली के यहां तिल सूखते हुए देखता तो माँ से कहता-“माँ, मुझे झटपट स्नान करा दे।" माँ भी समझ जाती । वह उसे स्नान कराने लग जाती और मौका देखकर माधो भी अपना कार्य
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