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२६० : आनन्द प्रवचन : भाग १२
तप आदि समस्त धर्माचरण सम्यक्, आराधनारूप, सम्यक्चारित्रमय, आत्मविकास का साधक और कर्मक्षयजनक होता है ।
इसकी सरल शब्दों में व्याख्या करें तो यह कहा जा सकता है कि जैनधर्म की सभी श्रेणियों के गृहस्थ-साधुओं का वैचारिक दृष्टिकोण एक समान होना चाहिए। यानी उनकी दृष्टि और विचारधारा में कोई अन्तर नहीं होना चाहिए। उनका शास्त्रीय ज्ञान चाहे उच्चकोटि का न हो, वे चाहे शास्त्रार्थ न कर सकते हों, वे चाहे अपने से उच्चश्रेणी की भूमिका का आचार पालन न कर सकते हों, परन्तु उनकी दृष्टि और विचारधारा में कोई अन्तर न रहे। विविध कोटि के श्रावकसाधुओं के चारित्र-आचारधर्म में काफी अन्तर होगा, इसलिए धर्माचरण करने में विविधता अवश्य होगी, लेकिन वे एक धर्मावलम्वी होने के नाते परस्पर साधर्मी (सहधर्मी) होंगे, अपने धर्म के सभी कोटि के लोगों की धर्माचरण की मर्यादाओं और व्रतनियमों को वे अवश्य जानेंगे।
निष्कर्ष यह है--सभी कोटि के जैनर्मियों में सम्यग्दर्शन अवश्य होगा। जो धर्म का उच्च आचरण नहीं कर सकता, वह अपने से उच्च आचरण करने वाले को पूजनीय या श्रेष्ठ समझेगा, अपनी कमजोरी वह स्वीकार करेगा, अपनी विवशता मानेगा।
ये और इस प्रकार की विशेषताएँ जिनोपदिष्ट धर्म में हैं। धर्म के आचरण पर जोर
जिनोपदिष्ट धर्म आचरण पर अधिक जोर देता है। जो धर्म केवल श्रद्धा की ही बात करता है या सिर्फ तत्त्वज्ञान तक ही अपने अनुयायी को सीमित रखता है, आचरण करने की बात को गौण मानता है, वह धर्म एकांगी है । जैन धर्म कहता हैधर्म पर पहले श्रद्धा करो, उसका दृष्टिकोण समझो, उसके तत्त्वों, सिद्धान्तों तथा आचरण की विविध श्रेणियों को जानो, तत्पश्चात् अपनी-अपनी भूमिका के अनुरूप आचरण करो । स्थानांग सूत्र में भ० महावीर ने स्पष्ट कहा है--
असुयाणं धम्माणं सम्मं सुणणयाए अब्भुट्ट्यव्वं भवति, सुयाणं धम्माणं ओगिण्हणयाए उवधारणयाए अन्भुट्टेयव्वं भवति ।
__"अभी तक नहीं सुने हुए धर्म को सुनने के लिए तत्पर रहना चाहिए, तथा सुने हुए धर्म को ग्रहण करने-उस पर आचरण करने को उद्यत रहना चाहिए।
वास्तव में धर्म का रहस्य आचरण में है । जो व्यक्ति किसी धर्म का अनुयायी होकर सिर्फ तत्त्वज्ञान कर लेता है, या विचारधारा जान लेता है, इतने से उसका कल्याण नहीं हो सकता । तथागत बुद्ध ने बहुत ही सुन्दर बात कही है-"जो व्यक्ति बहुत से धर्मशास्त्र पढ़ता है, परन्तु उनके अनुसार आचरण नहीं करता, वह उस ग्वाले के समान है, जो दूसरों की गायों को ही गिनता रहता है।"
१. स्थानांग, स्थान ८ !
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