________________
जिनोपदिष्ट धर्म का सम्यक् आचरण : २८९
साधनाओं में अन्तर अवश्य है; परन्तु जैनधर्म ने उन साधनाओं को मिथ्या नहीं कहा, जो सम्यग्दर्शनपूर्वक की जाती हों। भगवतीसूत्र में अम्बड, कालास्यवेशी आदि अनेक परिव्राजकों, तापसों आदि की साधनाओं का उल्लेख है। जिन साधनाओं के साथ शंका कांक्षा (फलाकांक्षा, सुखभोगाकांक्षा, निदान आदि), विचिकित्सा (फल में सन्देह) देवमूढ़ता गुरुमूढ़ता, धर्ममूढ़ता, शास्त्र-मूढ़ता, लोकमूढ़ता आदि मूढ़ता; मूढदृष्टि, विरुद्धता, अस्थिरता, मिथ्यादृष्टिप्रशंसा, मिथ्याहृष्टि का अत्यधिक परिचय, साधर्मीभाइयों के साथ रूखा व्यवहार, धर्मप्रभावना में मंदता आदि सम्यक्त्व-दोष न हों, उन साधनाओं तथा अध्यात्म-साधनाओं के धनी बहुत से साधकों को जैनधर्म ने मान्य कर लिया था । भगवान महावीर ने उन्हें अपने धर्मसंघ में समाविष्ट कर लिया था।
समस्त तत्त्वों का समन्वय-- सभी आस्तिक धर्म जड़-चेतन (अजीव-जीव), पुण्प-पाप, बन्ध-मोक्ष आदि को तो मानते ही हैं, अब रहे आस्रव, संवर और निर्जरा तत्त्व ये तीनों कर्मवाद से सम्बन्धित हैं । कर्मों का आगमन आस्रव है, आते हुए कर्मों का अवरोध संवर है और कर्मों का अंशतः क्षय निर्जरा है। इन्हें प्रकारान्तर से दूसरे धर्म भी मानते हैं, नाम चाहे भिन्न हों। जीव के अन्तर्गत संसारी (आत्मा) और सिद्ध (परमात्मा) दोनों का समावेश हो जाता है । जिनोपदिष्ट धर्म इन सभी तत्त्वों का सर्व जीवों के हित की दृष्टि से निरूपण करता है ।
सम्यग्दृष्टि के लिए सभी शास्त्र मान्य-संसार में कई प्रकार के शास्त्र हैं, उनमें आध्यात्मिक वर्णन वाले शास्त्रों के अतिरिक्त कई आत्मा से असम्बन्धित शास्त्र हैं जैसे कि चौर्यशास्त्र, विधिशास्त्र, शकुनशास्त्र, अंगस्फुरणशास्त्र, सामुद्रिकशास्त्र, अर्थशास्त्र, भूगोल-खगोलशास्त्र आदि ।
जिसकी दृष्टि सम्यक् है, उसके लिए जैनधर्म ने इन और ऐसे आत्मा से असम्बद्ध शास्त्रों को सम्यक्श्रुत मान लिया है, क्योंकि जिसकी दृष्टि सम्यक् होगी, वह इनमें से आध्यात्मिक प्रेरणा लेगा । उनका उपयोग पाप-कार्यों में या स्वार्थसिद्धि में नहीं करेगा, वह कुछ को ज्ञेय और कुछ को हेय समझेगा।
निष्कर्ष यह है कि जिनोपदिष्ट धर्म सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा से ऐसे शास्त्रों को भी पठनीय समझता है । नन्दीसूत्र में विशेष रूप से इसका विधान है।
सभी भूमिकाओं के जनधर्मी : विचारों में समान-इसके अतिरिक्त जिनोपदिष्ट धर्म की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि जैनधर्मी चाहे वह चतुर्थ गुणस्थानवर्ती (सम्यग्दृष्टि) हो, चाहे पंचम गुणस्थानवर्ती (श्रावकव्रतधारी गृहस्थ) हो, अथवा छठे गुणस्थानवर्ती (महाव्रती साधु) हो, वह साधु भी जिनकल्पी कोटि का हो अथवा स्थविरकल्पी कोटि का, सबके लिए एक शर्त है कि उनमें सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन (सम्यक्त्व) होना अनिवार्य है। सम्यग्दर्शन होने से व्रत, नियम, त्याग,
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org