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धर्म ही शरण और गति है : ३२९
तो मित्र की भाँति आनन्दपूर्वक रहिये, लेकिन अर्जुन आपकी शरण में आए, ऐसी आशा न रखिये।"
___ अर्जुन का स्पष्ट उत्तर सुनकर रुक्म क्रुद्ध हो गया। वह कहने लगा"मैं इतनी विशाल सेना लेकर तुम्हारी सहायता के लिए आया हूँ, तुम इतने से शब्द भी नहीं कह सकते । अगर तुम इतना कह दो तो एक घड़ी के छठे भाग में मैं तुम्हें विजयी बनाकर युधिष्ठिर के मस्तक पर राजमुकुट रखवा सकता हूँ। अगर मेरा कहना नहीं माना तो अपनी मृत्यु निकट ही समझ लेना । मैं अभी तुम्हारे शत्र के पक्ष में मिल जाऊँगा।"
___रुक्म की इस प्रकार की प्रलोभन और भय की बातें सुनकर भी वीर अर्जुन ने परवाह नहीं की । अर्जुन ने यही कहा-"अगर आपकी इच्छा विरुद्ध पक्ष में जाने की है तो आप खुशी से जा सकते हैं । हम आपकी इच्छा के विरुद्ध आपको रोकना नहीं चाहते । लेकिन आपके सामने मैं इस प्रकार की दीनता नहीं दिखला सकता । आप कौरव-पक्ष में सम्मिलित होने की बात सोचते हैं मगर दुर्योधन आपसे अधिक बुद्धिमान् है, वह आपके मनचाहे शब्द हर्गिज नहीं कहेगा।"
रुक्म- 'दुर्योधन को भी मेरे कहे हुए शब्द कहने पड़ेंगे । वह नहीं कहेगा तो मैं उसके पक्ष में भी शामिल नहीं होऊँगा।"
रुक्म यों कहकर देखते ही देखते अपनी विशाल सेना के साथ पाण्डवों की छावनी से कौरवों की छावनी में जा पहुंचा।
अर्जुन ने सोचा-'ऐसे अभिमानी व्यक्ति कभी विजय नहीं दिला सकते । विजय धनुष ने इसे जीत लिया है, फिर भी थोथा अहंकार है। हमारे पक्ष में उच्चश्रेणी के थोड़े-से भी योद्धा होंगे तो हमारी विजय निश्चित है।'
___अर्जुन के मन में दृढ़ता थी। इसलिए वह श्रीकृष्ण की शरण पर दृढ़ रहा, रुक्म की शरण स्वीकार नहीं की। दूसरा होता तो रुक्म के द्वारा दिये हुए विजय के प्रलोभन पर या उसके द्वारा दी गई धमकी पर बदल जाता, रुक्म को शरण स्वीकार कर लेता।
इसी प्रकार आप भी धर्म की शरण स्वीकार करने के बाद चाहे कितने ही भय या प्रलोभन आएँ कठिन अवसर आएँ, धर्म की शरण छोड़कर धन या किसी धनिक, सत्ताधीश या प्रबल व्यक्ति की शरण न स्वीकारें, दीनता-हीनता न दिखलाएँ । धर्मशरण को छोड़कर अन्याय, अनीति, दानवी शक्ति आदि के आगे न झुकें । अर्जुन ने सेना सहित रुक्म को जाने दिया, पर अपना धर्म नहीं जाने दिया। मेवाड़ राज्य का तो मुद्रालेख ही यह है
"जो दृढ़ राखे धर्म को, तिहि राखै करतार ।" बन्धुओ ! चाहे कितने ही संकट आएँ, भय आएँ या प्रलोभन, किसी भी मूल्य
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