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________________ ३३० : आनन्द प्रवचन : भाग १२ पर स्वीकृत धर्म-शरण को न छोड़ें । धर्म आपकी जीवन-शक्ति को प्रबल बनाकर स्वतः आपको उस सत्कार्य में विजयी बनाएगा। धर्म : गति-प्रगति दायक इस जीवनसूत्र का दूसरा अंश है-'धर्म गतिदायक है।' अर्थात्-धर्म मानवजीवन को गति देता है, प्रगति की प्रेरणा करता है, आगे बढ़ने का प्रोत्साहन देता है, वह मानव-जीवन को निष्क्रिय नहीं बनाता । एक जगह ठप्प होने की अनुमति या आदेश नहीं देता । धर्म यह बात कतई नहीं कहता कि एक बार आगे बढ़ने पर पीछे हटो। एक बार धर्म का अंगीकार करके फिर नैतिक नियमों, व्रतों, मर्यादाओं को मत तोड़ो, यदि उसे छोड़ दोगे तो कायरता कहलाएगी । धर्म कायरता या ढोंग करना नहीं सिखाता। __ यह तो आप जानते ही हैं कि गति ही जीवन है और निष्क्रियता ही मृत्यु है । इसलिए जीवन को अमर रखने के लिए धर्म में सतत गतिशीलता या प्रगति करना आवश्यक है। कई लोग कहते हैं, जैनधर्म तो निवृत्तिवादी है, वह प्रवृत्ति (गति) की प्रेरणा कैसे कर सकता है ? परन्तु यह भ्रान्ति है । जैनधर्म न तो एकान्तनिवृत्तिवादी है, और न ही एकान्तप्रवृत्तिवादी । वह निवृत्ति और प्रवृत्ति दोनों पर धर्म का अंकुश रखता है। इसलिए धर्म निष्क्रियता या एकान्त निवृत्ति की कदापि प्रेरणा नहीं दे सकता । जहाँ प्रवृत्ति में दोष आते हैं, वहां वह उन्हें दूर करके आत्मशुद्धि के लिए ध्यान, मौन, चिन्तन, आत्मनिरीक्षण, प्रतिक्रमण आदि करता है, वह भी एक प्रकार की मानसिक या वाचिक क्रिया है; एकान्तनिवृत्ति नहीं। इसलिए धर्म कहता है-आलस्य, प्रमाद और निद्रा में पड़े रहकर जीवन को निष्क्रिय मत बनाओ । सतत धर्म का अंकुश रखते हुए यथोचित प्रवृत्ति और निवृत्ति करो। धर्म मनुष्य की खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने, सोने-बैठने आदि की प्रवृत्ति को रोकता नहीं, परन्तु धर्मविवेक (यतना) रखकर सभी क्रियाएँ करने की प्रेरणा देता है। कई लोग कहते हैं कि अमेरिका, इंग्लैण्ड आदि में अंधाधुध अत्यधिक प्रवत्ति है, इसलिए उनमें अनेक दोष आ जाते हैं, अगर सर्वथा प्रवृत्ति बंद करदी जाए तो दोषों की कोई गुजाइश नहीं रहेगी। अतः मनुष्य को चुपचाप समस्त इन्द्रियों एवं शरीर को निश्चेष्ट बनाकर रहना चाहिए। परन्तु यह बात असम्भव है, अव्यवहार्य है । मनुष्य को आवश्यक क्रियाएँ तो करनी ही होंगी, अन्यथा वह जिन्दा नहीं रह सकता। कदाचित् इन्द्रियों को कोई निश्चेष्ट बनाकर बैठ जाए, पर कितनी देर बैठेगा ? खानेपीने, मल-मूत्र क्रिया करने या श्वास लेने-छोड़ने की क्रिया तो करनी ही होगी। कदाचित् इन्हें भी कुछ घंटों के लिए बन्द कर दे तो भी मन से विचार तो करेगा ही, उसे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004015
Book TitleAnand Pravachan Part 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1981
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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